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पवयणसारो
[ ३६३ होगा ? किसी का नहीं हो सकेगा। यदि सत्तारूप पदार्थ को न माने तो यह होगा कि विनाश किसी दूसरे का, उत्पाद किसी अन्य का व ध्रौव्य किसी और का होगा। ऐसा होते हुए सर्व वस्तु का स्वरूप बिगड़ जायेगा। इसलिये वस्तु के नाश के भय से यह मानना पड़ेगा कि उत्पाद व्यय प्रौव्य का कोई भी एक आधार है। वह इस प्रकरण में एक प्रदेश मात्र कालाणु पदार्थ ही है। यहां यह तात्पर्य समझना कि अनन्त भूतकाल में जिप्सने कोई सिद्ध सुख के पात्र हो चुके हैं व भविष्यकाल में अपने ही उपादान से सिद्ध व स्वयं अतिशयरूप इत्यादि विशेषणरूप अतींनिय सिद्ध सुख के पात्र होवेगे वे सब ही काल लब्धि के वश से ही हुए हैं व होंगे, तो भी अपना परमात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचिरूप तथा वीतरागचारित्र के अविनाभावी निश्चयसम्यग्दर्शन की ही मुख्यता है, न कि काल की। इसलिये काल हेय है। जैसा कि कहा है--
"बहुत क्या कहें जितने उत्तम पुरुष भूतकाल में सिद्ध हुए हैं व जो भव्य जीव भविष्य में सिद्ध होंगे सो सब सम्यग्दर्शन की महिमा जानो" ॥१४४॥
इस तरह निश्चय काल के व्याख्यान की मुख्यता से आठवें स्थल में तीन गाथायें पूर्ण हुई । इस तरह पूर्व में कहे प्रमाण "दथ्वं जीवमजीवं" इत्यादि उन्नीस गाथाओं से आठवें स्थल से विशेषज्ञेयाधिकार समाप्त हुआ।
इसके आगे शुद्ध जीव का अपने द्रव्य और भाव प्राणों के साथ भेद के निमित्त "सपदेसेहि समग्गो" इत्यादि यथाक्रम से आठ गाथाओं तक सामान्य भेद भावना का व्याख्यान करते हैं।
अथवं ज्ञेयतत्त्वमुक्त्वा ज्ञानज्ञेयविभागेनात्मानं निश्चिन्वन्नात्मनोऽत्यन्तविभक्तत्वाय व्यवहारजीवत्वहेतुमालोचयति
सरदेसेहि समग्गो लोगो अट्ठहि णिछिदो णिच्चो । जो तं जाणदि जीवो 'पाणचदुक्काभिसंबद्धो ॥१४॥
सप्रदेशः समग्रो लोकोऽथ निष्ठितो नित्यः ।
यस्तं जानाति जीवः प्राणचतुष्काभिसंबद्धः ॥१४५।। एवमाकाशपदार्थादाकालपदार्थाच्च समस्तैरेव संभावितप्रदेशसद्भावः पदार्थः समग्न एव यः समाप्ति नीलो लोकस्तं खलु तदन्तःपातित्वेऽप्यचिन्त्यस्वपरपरिच्छेदशक्तिसंपदा जीब एव जानीते नवितरः । एवं शेषद्रव्याणि ज्ञेयमेव, जीवद्रव्यं तु ज्ञेयं ज्ञानं चेति ज्ञानज्ञेयविभागः । अथास्य जीवस्य सहज विजृम्भितानन्तज्ञानशक्तिहेतु के त्रिसमयावस्थायि
१. पाणचउक्केण संबद्धो (ज० बु) ।