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________________ पवयणसारो । नहीं हैं। ऐसा है (पुणो) तो भो (तस्सेव) उन ही सिद्ध भगवान् के (ठिविसंभवणाससमवाओ) धोध्य-उत्पाद-व्यय का समुदाय (विज्जदि) विद्यमान रहता है। ____अर्थात् शुद्ध-व्यंजनपर्याय की अपेक्षा पर्यायाथिकनय से सिद्धपर्याय का जब उत्पाद हुआ है, तब संसार पर्याय का नाश हुआ है तथा केवलज्ञान आ द गुणों का आधारभूत द्रव्यापना होने से प्रौव्यपना है। इससे यह सिद्ध हुआ कि यद्यपि सिद्ध भगवान् के द्रव्याथिकनय से नित्यपना है तो भी पर्यायाथिकनय से उत्पाद उप्रय हैं। इस तरह समुदाय रूप से उत्पाव, व्यय प्रौव्य तीनों हैं। अथोत्पादादित्रयं सर्वद्रव्यसाधारणत्वेन शद्वात्मनोऽप्यवश्यंभावीति विभावयति-- उत्पादो य विणासो विज्जदि सबस्स अजादस्स । परजाएप, मुकेगादि अटो खलु होदि' सन्मूदो ॥१८॥ उत्पादश्च विनाशो विद्यते सर्वस्यार्थजातस्य । पर्यायेण तु केनाप्यर्थः खलु भवति सद्भूतः ॥१८॥ यथाहि जात्यजाम्बूनदस्याङ्गवपर्यायेणोत्पत्तिदृष्टा। पूर्वव्यवस्थिताङगुलीयकादिपर्यायेण च विनाशः। पीतताविपर्यावण तभयत्राप्युत्पत्तिविनाशावनासादयतः ध्रुवत्वम् । एवमखिलद्रव्याणां केनचित्पर्यायेणोत्पादः केचिद्विनाशः केनचिनौव्यमित्यवबोद्धव्यम् । अतः शुद्धात्मनोऽप्युत्पादावित्रयरूपं द्रव्यलक्षणभूतमस्तित्वमवश्यंभावि ॥१०॥ भूमिका-अब उत्पाद आदि तीनों (उत्पाद, व्यय और धौव्य) सर्व द्रव्यों के साधारणतया (अर्थात् ऐसा नहीं है कि किसी द्रव्य में हों और किसी में न हों) अवश्य होने से शुद्धात्मा के भी अवश्यंभावी हैं, इस बात को व्यक्त करते हैं ___ अन्वयार्थ- [सर्वस्य अर्थजातस्य सम्पूर्ण पदार्थ-समूह के (प्रत्येक पदार्थ के) [खलु वास्तव में [केन अपि पर्यायेण | किसी भी पर्याय से [उत्पादः] उत्पाद [विद्यते। है । [ सर्वस्य अर्थजातस्य] सम्पूर्ण पदार्थ समूह के [खलु] वास्तव में [केन अपि पर्यायेण | कसी भी पर्याय से [विनाशः ) विनाश [विद्यते] है । / च | और [अर्थः] पदार्थ [खलु] वस्तव में [केन अपि पयायेण ] किसी भी पर्याय से [ सद्भुतः | ध्रुव [विद्यते ] है। टीका-जैसे इस लोक में शुद्ध स्वर्ण के, बाज बन्द (रूप) पर्याय से उत्पाद देखा जता है, पूर्व अवस्था रूप से वर्तने वाली अंगूठी इत्यादि पर्याय से विनाश देखा जाता है औ पीलापन आदि पर्याय से तो दोनों में (बाजूबन्द और अंगूठी में) उत्पत्ति विनाश कोप्राप्त न होने वाले (सूवर्ण) नौव्यत्व दिखाई देता है। इसी प्रकार सर्व द्रव्यों के किसी १. होइ (ज- वृ०)।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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