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________________ ४० ] [ पवयणसारो [] और [तस्य एव पुनः ] उसके ही फिर [ स्थिति संभवनाशसमवायः विद्यते ] श्रीव्य उत्पाद और विनाश का समवाय ( एकत्रित समूह ) विद्यमान है । से टीका - वास्तव में इस ( शुद्धात्मस्वभाव को प्राप्त ) आत्मा के शुद्धोपयोग के प्रसाद शुद्ध आत्मस्वभाव (रूप) से जो उत्पाद हुआ है, वह ( उत्पाद ) फिर उस रूप से नाश का अभाव होने से, विनाशरहिन है और अशुद्ध भाव से विनाश हुआ है, यह (विनाश ), फिर उत्पत्ति का अभाव होने से, उत्पाद रहित है। इस कारण से उस ( आत्मा ) के सिद्धरूप से अविनाशीपता है । ऐसा होने पर भी ध्रौव्य, उत्पाद, व्यय का समवाय इस ( आत्मा ) के विरोध को प्राप्त नहीं होता ( क्योंकि वह ) विनाश रहित उत्पाद के साथ, उत्पाद रहित विनाश के साथ और उन दोनों के आधारभूत द्रव्य के साथ समवेत (तन्मयता ते युक्त- एकमेक ) है | तात्पर्यवृत्ति अथास्य भगवतो द्रव्यार्थिकन येन नित्यश्वेऽपि पर्यायायिकन येनानित्यत्वमुपदिशतिः - मंगविहोणो य भवो भङ्गविहीनश्च भवः जीवितमरणादिसमताभावलक्षणपरमोपेक्षासंयम रूप शुद्धोपयोगे नोत्पन्नो योसौ भवः केवलज्ञानोत्पाद: । स किं विशिष्ट ? भङ्गविहीनो विनाशरहितः । संभवपरिवज्जिओ विनासो त्ति योसी मिथ्यात्त्वरागादिसंसरणरूप संसार- पर्यायस्य विनामा स किं विशिष्टः ? संभवहीनः निर्विकारात्मतत्त्वविलक्षण रागादिपरिणामाभावादुत्पत्तिरहितः । तस्माज्ज्ञायते तस्यैव भगवतः सिद्धस्वरूपतो द्रव्याथिकनयेन विनाशो नास्ति । विज्जवि तस्सेव पुणो हिदिसंभवणाससमवाओ विद्यते तस्यैव पुनः स्थितिसंभवनाशसमवायः, तस्यैव भगवतः पर्यायार्थिकनयेन शुद्धव्यञ्जनपर्यायापेक्षया सिद्धपर्यायेणोत्पादः, संसारपर्यायेण विनाशः केवलज्ञानादिगुणाधारद्रव्यत्वेन धीव्यनिति । ततः स्थितं द्रव्यार्थिकनयेन नित्यत्वेपि पर्यायार्थिकनयेनोत्पादव्ययीव्यत्रयं संभवतीति ॥ १७॥ J उत्थानिका आगे उपदेश करते हैं कि अरहंत भगवान के द्रव्याथिकनय की मुख्यता से नित्यपना होने पर भी पर्यायार्थिकनय से अनित्यपना है । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( य मंगविहोणो ) तथा विनाश रहित ( भयो) उत्पाद अर्थात् श्री सिद्ध भगवान् के जीना मरना आदि में समताभाव है लक्षण जिसका ऐसे परम उपेक्षा रूप शुद्धोपयोग के द्वारा जो केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों का प्रकाश हुआ है, वह विनाश रहित हैं। उनके ( संभवपरिवज्जियो विणासो) उत्पत्ति रहित विनाश है अर्थात् विकार रहित आत्मतत्त्व से विलक्षण रागादि परिणामों के अभाव होने से फिर उत्पत्ति नहीं हो सकती है, इस तरह मिथ्यात्त्वं व रागादि द्वारा भ्रमण रूप संसार को पर्याय का जिसके नाश हो गया है । (हि) निश्चय करके ऐसा नित्यमना सिद्ध भगवान् के प्रगट हो जाता है, जिससे यह बात जानी जाती है कि द्रव्याथिकनय से सिद्ध भगवान् अपने स्वरूप से कभी छूटते
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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