SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पवयणसारो 1 [ २३५ टीका-वास्तव में इस विश्व में, विचित्रता को विस्तारित करते हुये (विविधताअनेकत्व को दिखाते हुये), अन्य द्रव्यों से व्यावृत (भिन्न) रहकर प्रवर्तमान, और प्रत्येक द्रव्य की सीमा को बांधते हुये, ऐसे विशेष लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व से लक्षित भी सर्व द्रव्यों की, विचित्रता के विस्तार को अस्त करता हुआ, सर्व द्रव्यों में प्रवृत्त होकर रहने पाला, और प्रत्येक द्रव्य को बंधी हुई सीमा को भेदता (तोड़ता) हुआ, 'सत्' ऐसा जो सर्वगत सामान्य लक्षणभूत एक सादृश्यास्तित्व है, वह ही वास्तव में एक ही जानने योग्य है । इस प्रकार 'सत्' ऐसा कथन और 'सत्' ऐसा ज्ञान सर्व पदार्थों का परामर्श (स्पर्शग्रहण) करने वाला है। यदि वह ऐसा (सर्व पदार्थ परामर्शी) न हो तो कोई पदार्थ सत्, कोई असत्, कोई सत् तथा असत् और कोई अवाध्य होना चाहिये, किन्तु वह तो निषिद्ध हो है, और यह ('सत्' ऐसा कथन और ज्ञान के सर्व पदार्थ परामर्शी होने की बात) तो सिद्ध हो सकती है, वक्ष की भांति । जैसे वास्तव में बहुत से और अनेक प्रकार के बृक्षो को अपने-अपने विशेष लक्षणसूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बन से उत्थित होते (खड़े होते) अनेकत्व को, सामान्य लक्षणभूत सादृश्यवर्शक वृक्षत्व से उत्थित होता एकत्व तिरोहित (अदृश्य) कर देता है, इसी प्रकार बहुत से और अनेक प्रकार के द्रव्यों को अपने-अपने विशेष लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बन से उस्थित होते अनेकत्व को, सामान्य लक्षणभूत सादृश्यदर्शक 'सत्' पनेसे ('सत्' ऐसे भाव से, अस्तित्व से है-पने से) उत्थित होता एकत्व तिरोहित कर देता है। और जैसे उन वृक्षों के विषय में सामान्य लक्षणभूत सादृश्यवर्शक वृक्षत्व से उत्थित होते एकत्व से तिरोहित होता है तो भी, (अपने-अपने) विशेष लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बन से उत्थित हुआ अनेकत्व स्पष्टतया प्रकाशमान रहता है, (बना रहता है, नष्ट नहीं होता), इसी प्रकार सर्व द्रव्यों के विषय में भी सामान्य लक्षण देत सादृश्यदर्शक मात्' पने से उत्थित होते एकत्व से तिरोहित होने पर भी, (अपने-अपने) विशेष लक्षणभूत स्वरूपास्तित्व के अवलम्बन से उत्थित हुआ अनेकत्व स्पष्टतया प्रकाशमान रहता तात्पर्यवृत्ति अथ सादृश्यास्तित्वशब्दाभिधेयां महासत्ता प्रज्ञापयति--- इह विविहलक्खणाणं इह लोके प्रत्येक सत्ताभिधानेन स्वरूपास्तित्वेन विविधलक्षणानां भिन्नलक्षणानां चेतनाचेतन मूर्तामुर्तपदार्थानां लक्खणमेगं तु एकमखण्डलक्षणं भवति । कि कृर्तृ ? सदित्ति स, सदिति महासत्तारूपं किविशिष्ट ? सधगयं संकरव्यतिकरपरिहाररूपस्वजात्यविरोधेन शुद्ध
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy