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________________ २३६ ] [ पबयणसारो संग्रहनयेन सर्वगतं सर्वपदार्थव्यापक । इदं केनोक्तं? जबक्षिसदा खलु धम्म जिणवरयसहेण पण्णत धर्म वस्तुस्वभाव संग्रहमुपदिशता खलु स्फुटं जिनवरवृषभेण प्रज्ञप्तमिति । तद्यथा- यथा सर्वे मुक्तात्मनः सन्तीत्युक्ते सति परमान्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादरितावस्थलोकाकाशप्रमितशुद्धासंख्येयात्मप्रदेशैस्तथा किञ्चिदूनचरमशरीराकारादिपर्यायश्च संकरव्यतिकरपरिहाररूपजातिभेदेन भिन्नानामपि सर्वेषां सिद्धजीवानां ग्रहणं भवति, तथा "सर्व सत्" इत्युक्ते संग्रहनयने सर्वपदाधाना ग्रहण भवति । अथवा सेनेयं वनमिदमित्युक्ते अश्वहस्त्यादिपदार्थानां निम्बाम्रादिवृक्षाणां स्वकीयस्वकीयजातिभेदभिन्नानां युगपद्ग्रहणं भवति, तथा सर्व सदित्युक्ते सति सादृश्यसत्त.भिधानेन महासत्तारूपेण शुद्धसंग्रहनयेन सर्व पदार्थानां स्वजात्य विरोधन ग्रहणं भवतीत्यर्थः ॥२७॥ उत्थानिका-आगे सादृश्य अस्तित्व शब्द से कहे जाने वाली महासत्ता का वर्णन करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(इह) इस लोक में (विविहलक्खणाणं) नाना प्रकार भिन्न-भिन्न लक्षणरखने वाले पदार्थों का (एग) एक (सव्वमय) सर्व पदार्थों में व्यापक (लक्खणं) लक्षण (सवित्ति) सत् ऐसा (धम्म) वस्तु के स्वभाव को (उदिसदा) उपदेश करने वाले (जिणवरवसहेण) श्री वृषभ जिनेन्द्र ने (खल) प्रगट रूप से (पण्णत्तं) कहा है। इस जगत में भिन्न-भिन्न लक्षण को रखने वाले चेतन अचेतन मूर्त अमूर्त अनेक पदार्थ हैं, उनमें से प्रत्येक पदार्थ की सत्ता या स्वरूपास्तित्व भिन्न-भिन्न है तो भी इन सबका एक अखंड सर्व व्यापक लक्षण भी है। यह लक्षण मिलाप में भिन्नता के विकल्प से रहित अपनी-अपनी जाति में विरोध न पड़ने देने वाले शुद्ध संग्रहनय से सर्व पदार्थों में व्यापक एक सत् रूप है या महासत्ता रूप है ऐसा वस्तु स्वभावों के संग्रह को उपदेश करने वाले श्री तीर्थंकर भगवात् ने प्रगटरूप से वर्णन किया है। इस प्रकार-जैसे 'सर्व मुक्तात्मा हैं, ऐसा कहा जाने से सर्व ही सिद्धों का एक साथ ग्रहण हो जाता है । यद्यपि वे सर्व सिद्ध परमानंदमयी एक लक्षण घाले सुखामृत रस स्वाद से भरे हुए अपने-अपने शुद्ध लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेशों की अपेक्षा तथा अपने-अपने अन्तिम शरीर से किंचित् न्यून पर्याय की अपेक्षा मित्र व भिन्नता के विकल्प से रहित अपनी-अपनी जाति के भेद से भिन्न हैं तो भी एक सत्ता लक्षण की अपेक्षा उन सब सिद्धों का ग्रहण हो जाता है । वैसे ही 'सर्व सत्' ऐसा कहने पर संग्रहनय से सर्व पदार्थों का ग्रहण हो जाता है । अथवा यह सेना है, ऐसा कहने पर अपनी-अपनी जाति से भिन्न घोड़े, हाथी आदि पदार्थों की भिन्नता है तो भी सबका एक काल में ग्रहण हो जाता है, अथवा यह वन है, ऐसा कहने पर अपनी-अपनी जाति से भिन्न निम्ब, आम्र
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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