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________________ पवयणसारो 1 [ २१५ अपने सूक्ष्म अगुरुलघुगुण द्वारा प्रतिसमय प्रगट होने वाली षट्स्थानपतित हानि-वृद्धिरूप अनेकत्व की अनुभति रूप (नाना-पनका ज्ञान कराने वाली) गुणात्मक स्वभावपर्याय है, और जैसे पट में स्व-पर के कारण रूपादिक के प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्था में होने वाले तारतम्य से विखलाये हुये स्वभाव विशेष अनेकपने से आ पड़ने रूप गुणात्मक विभावपर्याय है, उसी प्रकार समस्त द्रव्यों में रूपादि के या ज्ञानादि के स्व-पर के कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्था में होने वाले तारतम्य से दिखलाये हुये स्वभाव विशेष से अनेकपने से आ पड़ने रूप गुणात्मक विमान-पर्याय है। वास्तव में यह सर्व पदार्थों के अध्यगण पर्याय स्वमात्र को प्रकाशक पारमेश्वरी व्यवस्था भली उत्तम-पूर्ण-योग्य है, अन्य कोई नहीं, क्योंकि बहुत से (जीव) पर्याय मात्र ही अबलम्बन करके तत्त्व की अप्रतिपत्ति जिसका लक्षण है, ऐसे मोह को प्राप्त होते हुए परसमय (मिथ्या-दृष्टि) होते हैं ॥३॥ be तात्पर्यवृत्ति - इतः ऊवं "सत्तासंबद्ध दे" इत्यादि गाथासूत्रेण पूर्व संक्षेपेण यद्वयाख्यातं सम्यग्दर्शनं तस्येदानी विषयभूतपदार्थव्याख्यान द्वारेण त्रयोदशाधिकशतप्रमितगाथापर्यन्तं विस्त रव्याख्यानं करोति । अथवा द्वितीयपातनिका-पूर्व यद्वयाख्यातं ज्ञानं तस्य ज्ञेयभूतपदार्थान् कपयति । तत्र त्रयोदशाधिकशतगाथासु मध्ये प्रथमस्तावत् "तम्हा तस्स णमाई" इमां गाथामादि कृत्वा पाठक्रमेण पञ्चत्रिशद्गाथापर्यन्त सामान्यज्ञेयव्याख्यानं, तदनन्तरं "वश्वं जीवमजीव" इत्यायेकोनविंशतिमाथापर्यन्तं विशेषज्ञेयव्याख्यान, अथानन्तरं "सपदेसेहि समगो लोगों" इत्यादि गाथाष्टकपर्यन्तं सामान्यभेदभावना, ततश्च "अस्थितणिज्छिवस्स हि" इत्यायेकपञ्चाशद्गायापर्यन्तं विशेषभंवभावना चेति, द्वितीयमहाधिकारे समुदायपातनिका । अथेदानी सामान्यज्ञेयव्याख्यानमध्ये प्रथमा नमस्कारगाथा, द्वितीया द्रव्यगुणपर्यायव्याख्यानमापा, तृतीया स्वसमयपरसमयनिरूपणाथा, चतुर्थी द्रव्यस्य सत्तादिलक्षणत्रयसूचनगाथा चेति पीठिकामिधाने प्रथमस्थले स्वतन्त्रगाथाचतुष्टयं । तदनन्तरं "सभायो हि सहावो" इत्यादिगाथाचतुष्टयपर्यन्तं सत्तालक्षणव्याख्यानमुख्यत्वं, तदनन्तरं "ण भवो भंगविहिणो" इत्यादिगाथात्रयपर्यन्तमुत्पावष्यपध्रौव्यलक्षणकथनमुख्यता, तत्तश्च "पाडुभवदि य अण्णो" इत्यादि माथाद्वयेन द्रव्यपर्याय"निरूपणमुख्यता । अथानन्तरं "ण हवधि जवि सहब्ब" इत्यादि गाथाचतुष्टयेन सत्ताद्रव्ययोरभेदविपये युक्ति कथयलि, तदनन्तरं 'जो खलु दख्वसहायो' इत्यादि सत्ताद्रव्ययोर्गुणगुणिकथनेन प्रथम गाथा, प्रमेण सह गुणपर्याययोरभेदमुख्यत्वेन 'णस्थि गुणोति य कोई इत्यादि द्वितीया चेति स्वतन्त्रगाथाद्वयं, उदनन्तरं द्रष्यस्य द्रव्याथिकनयेन सदुत्पादो भवति, पर्यायाथिकनयेनासदित्यादिकथनरूपेण ‘एवं विहं' इतिप्रभृति गाथाचतुष्टयं, सतश्च 'अथित्ति य' इत्याद्य कसूत्रेण नयमप्तभङ्गोव्याख्यानमिति समुदायेन सुर्विशतिगाथाभिरष्टभिः स्थलद्रव्यनिर्णयं करोति । तद्यथा-अथ सम्यक्त्वं कथयति -
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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