________________
। पसारो अन्वयार्थ-[यदि हि] (पूर्वोक्त प्रकार से) जो [परिणामसमुद्भवानि] (शुभोपयोग रूप) परिणामों से उत्पन्न होने वाले [विविधानि पुण्यानि ] अनेक प्रकार के पुण्य [संति] हैं (वे पुण्य) [देवान्तानां जीवानां] देवों तक के जीवों के [विषयतृष्णा ] विषय तृष्णाको [जनयन्ति] उत्पन्न करते हैं।
टीका-यदि इस प्रकार शभोपयोग परिणामों से की है उत्पत्ति जिन्होंने (उत्पन्न होने वाले) ऐसे अनेक प्रकार के पुण्य विद्यमान हैं, यह स्वीकार किया है तो वे (पुण्य) देवों तक के समस्त संसारियों के विषय-तृष्णा को (अवश्य ही उत्पन्न करते है यह भी स्वीकार करना पड़ेगा)। वास्तव में तृष्णा के बिना दूषित रक्त में जोंकों (गोंचों) की तरह, समस्त संसारियों की विषयों में प्रवृत्ति दिखाई न दे, किन्तु यह (प्रवृत्ति) तो दिखाई देती है, इस कारण से पुण्यों के तष्णा की स्थापना भवाधित ही है (अर्थात् पुण्य तृष्णा के घर हैं, यह अविरोध रूप से सिद्ध होता है) ॥७४॥
तात्पर्यवृत्ति अथ पुण्यानि जीवस्य विषयतृष्णामुत्पादयन्तोति प्रतिपादयति
जदि संति हि पुण्णाणि य यदि चेनिश्चयेन पुण्यपापरहितपरमात्मनो विपरीतानि पुण्यानि सन्ति । पुनरपि किविशिष्टानि ? परिणामसमुभवाणि निर्विकारस्वसंवित्तिविलक्ष शुभपरिणामसमुद्भवानि विविहाणि स्वकीयानन्तभेदेन बहुविधानि । तदा तानि कि कुर्वन्ति ? जगति विसयतण्ह जनयन्ति । कां ? विषयतृष्णां । केषां ? जोवाणं वेबदताणं दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाङ्क्षारूपनिदान बन्धप्रभृतिनानामनोरथहेयरूपविकल्पजालरहितपरमसमाधिसमुत्पन्नसुखामृतरूपां सत्मिप्रदेशेषु परमालादोत्पत्तिभूतामेकाकारपरमसमरसीभावरूपां विषयाकाङ्क्षाग्निजनितपरमदाहविनाशिका स्वरूपतृप्तिमलभमानानां देवेन्द्रप्रतिबहिर्मुखसंसारिजीवानामिति ।
इदमत्र तात्पर्यम् -- यदि तथाविधा विषयतृष्णा नास्ति तहि दुष्ट शोणिते जलयूका इव कथं ते विषयेषु प्रवृत्ति कुर्वन्ति । कुर्वन्ति चेत् पुण्यानि तृष्णोत्पादकत्वेन दुःख कारणानि इति जायन्ते ॥७४।।
उत्थानिका—आगे कहते हैं कि पुण्यकर्म मिथ्यादष्टि जीवों में विषय की तृष्णा को पैदा कर देते हैं
अन्वय सहिन विशेषार्थ-(जदि हि) यद्यपि निश्चय करके (परिणामसमुन्भवाणि) विकार रहित स्वसंवेदन भाव से विलक्षण शुभ परिणामों के द्वारा पैदा होने वाले (विधिहाणि पुण्णाणि संति) अपने अनन्तभेद से नाना तरह के तथा पुण्य व पाप से रहित परमात्मा से विपरीत पुण्य कर्म होते हैं तथापि वे (देवदंताणं जीवाणं) देवता तक के जीवों के भीतर (विसयताह) विषयों की चाह को (जणयंति) पंदा कर देते हैं। ये पुण्यकर्म जन देवेन्द्र आदि बहिर्मुखी जीवों के भीतर विषय को तृष्णा बढ़ा देते हैं। जिन्होंने देखे, सुने,