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________________ पक्यणसारो ] [ ४३६ होती है। आत्मा तो तुल्य क्षेत्र में वर्तता हुआ भी (परद्रव्य के साथ एक क्षेत्रावगाही होने पर भी) परद्रव्य के ग्रहण त्याग से रहित ही है इसलिये वह पुद्गलों को कर्मभावरूप परिणमित कराने वाला नहीं है ॥१८५।। तात्पर्यवृत्ति अथात्मनः कथं द्रब्यकर्मरूपपरिणामः कर्म न स्यादिति प्रश्नसमाधानं ददाति गेहादि णेब ण मुचदि करेदि ण हि पुग्गलाणि कम्माणि जीवो यथा निर्विकल्पसमाधिरतः परममुनिः परभावं न गृह्णाति न मुञ्चति न च करोत्युपादानरूपेण लोहपिण्डो वाग्नि तथायमात्मा न च गृह्णाति न च मुञ्चति न च करोत्युपादानरूपेण पुद्गलकर्माणीति । किं कुर्वन्नपि ? पुग्गलमजो वदृष्णवि सव्वक्रालेसु क्षीरनीरन्यायेन पुद्गलमध्ये वर्तमानोऽपि सर्वकालेषु । अनेन किमुक्तं भवति-यथा सिद्धो भगवान पुद्गलमध्ये वर्तमानोऽपि परद्रव्यग्रहणमोचन करणरहितस्तथा शुद्धनिश्चयेन शक्तिरूपेण संसारी जीवोऽपीति भावार्थः ।। १८५।।। उत्थानिका-आगे इस प्रश्न के होने पर कि आत्मा के किस तरह द्रव्यकर्म का परिणमन रूपी फर्म नही होता है, आचार्य समाधान करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ—(जीवो) यह जीव (पुग्गलमझे) पुद्गलों के मध्य में (सवकालेसु) सर्व कालों में (पट्टण्णवि) रहता हुआ भी (पुरगलाणि कम्माणि) पुद्गलमयी कर्मों को (णेव गेण्हदि) न तो ग्रहण करता है (ण मुंबवि) न छोड़ता है (ण हि करेदि) और न करता है । यह जीव सर्व कालों में दूध पानी की तरह पुदगल के बीच वर्तमान है तो भी जसे निर्विकल्पसमाधि में रत परममुनि परभाव को न ग्रहण करते, न छोड़ते, न करते अथवा जैसे लोहे का गोला उपादान रूप से अग्नि को ग्रहण करता, छोड़ता व करता नहीं है तैसे यह आत्मा उपादान रूप से पुद्गलमयो कर्मों को न तो ग्रहण करता है, न छोड़ता है न करता है। इससे यह कहा गया कि जैसे सिद्ध भगवान पुद्गल के मध्य में रहते हुए भी परद्रव्य के ग्रहण, त्यजन व करने के व्यापार से रहित हैं तैसे ही शुद्ध निश्चयनय से स्वभाव को अपेक्षा संसारी जीव भी ग्रहण त्यागादि नहीं करते हैं ॥१८॥ अथात्मनः कुतस्तहि पुद्गलकर्मभिरुपावानं हानं चेति निरूपयति--- स इदाणि कत्ता सं सगपरिणामस्स दव्वजादस्स । आदीयदे कदाई विमुच्चदे कम्मधूलोहिं ॥१८६॥ स इदानी कर्ता सन् स्वकपरिणामस्य द्रव्यजातस्य । आदीयते कदाचिद्विमुच्यते कर्मधूलिभिः ।।१८६।। सोऽयमात्मा परद्रव्योपादानहानशून्योऽपि सांप्रतं संसारावस्थायां निमित्तमात्रोक तपरद्रव्यपरिणामस्य स्वपरिणाममात्रस्य द्रव्यत्वभूतत्वात्केवलस्य कलयन् कर्तत्वं तदेव
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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