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________________ ६२ ] [ पवयणसारो सर्वगतो जिनवृषभः सर्वेऽपि च तद्गता जगत्यर्थाः । ज्ञानमयत्वाच्च जिने विषयत्वात् तस्य ते मणिताः ।।२६।। ज्ञानं हि त्रिसमयावच्छिन्नसर्वद्रव्यपर्यायरूपव्यवस्थितविश्व ज्ञेयाकारानाक्रामत् सर्वगतमुक्तं तथाभूतज्ञानमयोभूय व्यवस्थितत्वाद्धगवानपि सर्वगत एव । एवं सर्वगतज्ञानविषयत्वात्सर्वेऽर्था अपि सर्वगतज्ञानाध्यतिरिक्तस्य भगवतस्तस्य ते विषया इति भणितत्वात्तद्गता एव भवति। तत्र लिश्चयनयेमानाकुलत्वलक्षणसौख्यसंवेदनत्वाधिष्ठानत्यावच्छिन्नात्मप्रमाणज्ञानस्वतत्त्वापरित्यागेन विश्वज्ञेयाकाराननुपगम्यावबुध्यमानोऽपि व्यवहारनयेन भगवान् सर्वगत इति ध्यपदिश्यते । तथा नैमित्तिकभूतज्ञेयाकारानात्मस्थानवलोक्य सर्वेऽस्तिद्गता इत्युपर्यन्ते, न च तेषां परमार्थतोऽन्योन्यगमनमस्ति, सर्वव्याणां स्वरूपनिष्ठत्वात् । अयं क्रमो ज्ञानेऽपि निश्चेयः ॥२६॥ भूमिका-अब आत्मा के भी, ज्ञान की तरह, सर्वगतपना न्याय से प्राप्त हुआ, इस बात को दिखलाते हैं--- अन्वयार्थ---[जिनवृषभः] जिनेश्वर (सर्वज्ञ) [सर्वगतः] सर्वगत है (ज्ञान की अपेक्षा सब पदार्थों में व्यापक है)। [जिनः ज्ञानमयत्वात्] क्योंकि जिन ज्ञानमय है [च] और _ [जगति] जगत में [सवें अपि अर्था] सब ही पदार्थ [तद्गताः] (दर्पण में बिम्ब की तरह) उस जिनवर-गत हैं (जिनमें प्राप्त हैं) (क्योंकि) [ते] वे पदार्थ [विषयत्वात्] ज्ञान के विषय (ज्ञेय) होने से [तस्य] जिनराज में उनके विषय (ज्ञेय) [भणिताः] कहे गये हैं। टीका-ज्ञान वास्तव में, तीन काल में व्याप्त सब द्रव्य पर्याय रूप से व्यवस्थित विश्व के जेयाकारों को ग्रहण करता हुआ (जानता हुआ) सर्वगत कहा गया है और ऐसे (सर्वगत ज्ञान से) ज्ञानमय होकर रहने से भगवान् भी सर्वगत ही हैं। इस प्रकार सवंगत ज्ञान के विषय (ज्ञेय) होने से सब पदार्थ भी सर्वगत ज्ञान से अभिन्न भगवान् के वे विषय हैं, ऐसा (शास्त्र में) कथन होने से वे सब पदार्थ भगवान्-गत हो हैं (अर्थात् भगवान् में प्राप्त ही हैं)। (अब टीकाकर इसके अर्थ को विशेष रूप से समझाते हैं)--यहाँ (ऐसा समझना कि) निश्चयनय से अनाकुलता लक्षण सुख का जो संवेदन उस सुख-संघेदन की अधिष्ठानता जितनी हो, आत्मा है, और उस आत्मा के बराबर ही ज्ञान स्वतत्त्व है। उस निजस्वरूप आत्म-प्रमाण ज्ञान को छोड़े बिना, विश्व के ज्ञेयाकारों के निकट गये बिना, भगवान् (सर्व पदार्थों को) जानते हुए भी, व्यवहारमय से "भगवान् सर्वगत" है ऐसा तथा नैमित्तिकभूत ज्ञेयाकारों को आत्मा में स्थित (आत्मा में रहते हुए) देखकर सर्व पदार्थ
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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