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पत्रयणसारो
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कहा है “समगुणपर्यायं द्रव्यं भवति" अर्थात् द्रव्य अपने गुण और पर्यायों के समान होता है । इस वचन से वर्तमान मनुष्य भव में यह आत्मा वर्तमान मनुष्य पर्याय के समान प्रमाण वाला है तैसे ही मनुष्य पर्याय के प्रदेशों में रहने वाला ज्ञान गुण है। जैसे यह आत्मा इस मनुष्य पर्याय में ज्ञान के गुण के बराबर प्रत्यक्ष में दिखलाई पड़ता है तैसे निश्चय से सदा ही अव्याबाध और अविनाशी सुख आदि अनन्त गुणों का आधारभूत जो यह केवलज्ञान गुण
तिस प्रमाण यह आत्मा है । ( णाणं णेयप्यमाणं ) ज्ञान ज्ञेय प्रमाण ( उद्दिट्ठ ) कहा गया है । जैसे ईंधन में स्थित आग ईंधन के बराबर है वैसे हो ज्ञान ज्ञेय के बराबर है । (यं लोपालोयं ) ज्ञेय लोक और अलोक हैं । शुद्ध बुद्ध एक स्वभावमयी सर्व तरह से उपादेयभूत ग्रहण करने योग्य परमात्म-द्रव्य को आदि लेकर छः द्रव्यमयी यह लोक है । लोक के बाहरी भाग में जो शुद्ध आकाश है सो अलोक है। ये दोनों लोकालोक अपने-अपने अनन्त पर्यायों में परिणमन करते हुए अनित्य हैं तो भी द्रव्याथिक नय से नित्य हैं । ज्ञानलोक अलोक को जानता है । ( तम्हा ) इस कारण से ( गाणं तु सव्वगयं ) ज्ञान सर्वगत है । अर्थात् क्योंकि निश्चय रत्नत्रयमय शुद्धोपयोग की भावना के बल से पैदा होने वाला केवलज्ञान है वह पत्थर में टांकी से उकेरे हुए न्याय से पूर्व में कहे गये सर्व ज्ञेय को जानता है इसलिए व्यवहार नय से ज्ञान सर्वगत कहा गया है । इसलिए यह सिद्ध हुआ कि आत्मा ज्ञान प्रमाण है और ज्ञान सर्वगत है ॥२३॥
अथात्मनो ज्ञानप्रमाणत्वानभ्युपगमे द्वौ पक्षावुपन्यस्य दूषयति--- गाणपमाणमादा ण हवदि जस्सेह तस्स सो आदा ।
हीणो वा अहिओ' वा णाणादो हवदि धुवमेव ॥ २४ ॥ होणो जदि सो आदा 'तण्णाणमचेवणं ण जाणादि ।
अहिओ वा णाणादो णाणेण विणा कहं णादि ॥ २५ ॥ जुगलं
ज्ञानप्रमाणमात्मा न भवति यस्येह तस्य स आत्मा ।
होनो वा अधिको वा ज्ञानाद्भवति ध्रुवमेव ॥ २४ ॥
हीनो यदि स आत्मा तत् ज्ञानमचेतनं न जानाति ।
अधिको वा ज्ञानात् ज्ञानेन विना कथं जानाति ||२५|| युगलम्
यदि खल्वयमात्मा होनो ज्ञानादित्यभ्युपगम्यते, तदात्मनोऽतिरिच्यमानंज्ञानं स्वाश्रयभूतचेतनद्रध्यसमवायाभावावचेतनं भवद्रूपादिगुणकल्पतामापन्नं न जानाति । यदि पुनर्शा
१. अहियो (ज० वृ० ) "
२. तं णाणम चेद्रणं ( ज० वृ० ) । ३. अहियों ( वृ०)