SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६० ] [ पक्ष्यणसारो नादधिक इति पक्षः कक्षीक्रियते तदावश्यं ज्ञानादतिरिक्तत्वात् पृथग्भूतो भवन् घटपटादिस्थानीयतामापनो ज्ञानमन्तरेण न जानाति । ततो ज्ञानप्रमाण एवायमात्माभ्युपगन्तव्यः । भूमिका-अब, आत्मा के ज्ञान-प्रमाण-पना (आत्मा ज्ञान के बराबर है, यह बात) न मानने में दो पक्षों को उपस्थित करके, (उन दोनों को) दूषित ठहराते हैं । (आत्मा को ज्ञान-प्रमाण जो नहीं मानते हैं वहाँ होनाधिकपने में दोष देते हैं) ___ अन्वयार्थ-[इह्] इस जगत् में [यस्य ] जिस वादी के मत में [आत्मा] आत्मा [ज्ञानप्रमाणं] ज्ञान के बराबर [न भवति ] नही है [तस्य] उसके मन में [सः आत्मा] वह आत्मा [ज्ञानात् हीनः ] ज्ञान से हीन [वा] अथवा [ज्ञानात् अधिकः] ज्ञान से अधिक [ध्र बं एव] अवश्य ही [भवति ] है। [यदि] जो [सः आत्मा] वह आत्मा [ज्ञानावहीनः] ज्ञान से हीन है तो तित् ज्ञानं] वह ज्ञान [अचेतन] अचेतन (अपने आश्रयभूत चेतनमयी आत्म-द्रव्य के आधार बिना अचेतन होने से) [न जानाति] नहीं जानता है अथवा जो वह आत्मा [ज्ञानात् अधिक:] ज्ञान से अधिक है तो [ज्ञानेन बिना] ज्ञान के बिना [कथं जानाति] (वह आत्मा अचेतन होने से) कैसे जानता है ? (अर्थात् नहीं जान सकता)। टीका-जो वास्तव में 'आत्मा ज्ञान से हीन हैं यह स्वीकार किया जाए तो आत्मा से आगे बढ़ा हुआ ज्ञान अपने आश्रयमूत चेतन द्रव्य का समवाय (सम्बन्ध) न रहने से अचेतन होता हुआ, रूपावि जैसा होता हुआ, नहीं जानता है और जो (यह आत्मा) ज्ञान से अधिक है, ऐसा पक्ष स्वीकार किया जाय तो अवश्य हो (आत्मा) ज्ञान से आगे बढ़ जाने से (ज्ञान से) पृथक्भूत (भिन्न) होता हुआ, घट पट आदि जैसा प्राप्त हआ, ज्ञान के बिना नहीं जानता है । इस कारण से ज्ञान के बराबर हो यह आत्मा मानने योग्य है ॥२४-२५॥ तात्पर्यवृत्ति अथात्मानं ज्ञानप्रमाणं ये न मन्यन्ते तत्र हीनाधिकत्वे दूषणं ददाति, णाणापमाणमादा ण हववि जस्सेह ज्ञानप्रमाणमारमा न भवति यस्य वादिनो मतेऽत्र जगति तस्स सो आदा तस्य मते स वात्मा हीणो वा अहियो वाणाणादो हदि धुवमेव हीनो वा अधिको वा ज्ञानात्सकाशाद् भवति निश्चितमेवेति ॥२४|| होणो जदि सो आवा तं जाणमचेवणं ण आणादि होनो यदि स आत्मा तदाग्नेरभावे सति उष्णगुणो यथा शीतलो भवति तथा स्वाश्रयभूतचेतनात्मकद्रव्य. समवायाभावात्तस्यात्मनो ज्ञानमचेतनं भवत्सद किमपि म जानानि । अहियो वा णाणाधो णाण विणा कह णावि अधिको वा ज्ञानात्सकाशात्तहि यथोष्णगुणाभावेऽग्निः शीतलो भवन्सन् दहन क्रियां प्रत्यसमर्थो भवति तथा ज्ञानगुणाभावे सत्यात्माप्यचेतनो भवन्सन् कथं जानाति? न कथमपि । अयमत्र
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy