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________________ ५८ ] [ पवयणसारो भूमिका-अब, आत्मा के ज्ञान प्रमाणपने को (आत्मा ज्ञान के बराबर है, होन या अधिक नहीं है, इस बात को) और ज्ञान के सर्वगतपने को (ज्ञान सब पदार्थों में रहता है। इस बात को उद्योत करते हैं (प्रगट करते हैं) ____ अन्वयार्थ-[आत्मा ज्ञानप्रमाणं] आत्मा ज्ञान के बराबर (और) [ज्ञानं ज्ञेयप्रमाणं] ज्ञान ज्ञेय के बराबर [उद्दिष्टं] कहा गया है। [ज्ञेयं] जेय [लोकालोकं] लोक आलोक है । [तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानं] ज्ञान [तु] ती [सर्वगतं] (सर्वव्यापक) है । टीका---'समगुणपर्यायव्यं' गुण पर्यायों जितना द्रव्य है इस वचन से (इस आगम वचन के अनुसार) आत्मा वास्तव में ज्ञान के साथ हीनाधिकता-रहितपने से परिणत होने से उसके (ज्ञान के) बराबर है, और ज्ञान तो ज्ञेयों में स्थित होने से, दाह्य में (जलाने योग्य पदार्थों में) स्थित अग्नि की भांति, ज्ञेयों के बराबर है। ज्ञेय तो लोक और अलोक के विभाग में विभक्त, अनन्त पर्यायमाला से आलिगित स्वरूप से सूचित (प्रगट-ज्ञात) व्यय उत्पाद-ध्रौव्य स्वरूप ऐसा षट् द्रव्यसमूह रूप सब कुछ है। चूंकि ऐसा है इसलिये सम्पूर्ण आवरण के नाश के समय में ही लोक और अलोक के विभाग में विभक्त समस्त वस्तुओं के आकारों के पार को प्राप्त करके और फिर उसी प्रकार अच्युतरूप (अविनाशी) रहने से ज्ञान सर्वगत है ॥२३॥ __ तात्पर्यवृत्ति अथात्मा ज्ञानप्रमाणो भवतीति ज्ञानं च व्यवहारेण सर्वगतमित्युपदिशति-आदा णाणपमाणं ज्ञानेन सह हीनाधिकत्वाभावादात्मा ज्ञानप्रमाणो भवति । तथाहि-"समगुणपर्यायं द्रव्यं भवतीति" वचनाद्वर्तमानमनुष्यभवे वर्तमानमनुष्यपर्यायप्रमाणः, तदेव मनुष्यपर्यायप्रदेशबतिज्ञानगुणप्रमाणश्व प्रत्यक्षेण दृश्यते यथायमात्मा, तथा निश्चयतः सर्वदेवाव्याबाधाक्षयसुखाद्यनन्तगुणाधारभुतो योमी केवलज्ञानगुणस्तत्प्रमाणोऽयमात्मा। गाणं यापमाणमुट्ठि दाह्यनिष्ठवहनवत् ज्ञान ज्ञेयप्रमाणमुद्दिष्टं कथितम् । णेयं लोयालोयं ज्ञेयं लोकालोकं भवति । शुद्धबुद्धकस्वभाव सर्वप्रकारोपादेयभुतपरमात्मद्रव्यादिषद्रव्यात्मको लोकः, लोकाहि गे शुद्धाकाशमलोकः, तच्च लोकालोकद्वयं स्वकीयस्वकोयानन्तपर्यायपरिणतिरूपेणानित्यमपि द्रव्याथिकनयेन नित्यम् । तम्हा णाणं तु सध्वगयं यस्मान्तिपचयरत्नत्रयात्मकशुद्धोपयोगभावनाबलेनोत्पन्न यत्केवलज्ञानं तट्टवोत्कीर्णाकारन्यायेन निरन्तर पूर्वोक्तज्ञेयं जानाति, तस्माद्यवहारेण तु ज्ञानं सर्वगतं भण्यते । ततः स्थितमेतदात्मा ज्ञानप्रमाण ज्ञानं सर्वगतमिति ।।२३॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि आत्मा ज्ञान प्रमाण है तथा ज्ञान व्यवहार से सर्वगत है ___ अन्वय सहित बिशेषार्थ-(आदा णाणपमाणं) आत्मा ज्ञान प्रमाण है अर्थात् ज्ञान के साथ आत्मा हीन या अधिक नहीं है इसलिये ज्ञान जितना है उतनी आत्मा है।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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