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________________ १४४ ] [ पवयणसारो वास्तव में ऐसी श्रद्धा नहीं है वे वास्तव में मोक्ष सुख के सुधापान से दूर रहने वाले अभव्य मृगतृष्णा में जल-समूह को ही देखते हैं (इन्द्रियसुख को ही सुख मानते हैं)। ओ इस वचन को इसी समय स्वीकार (श्रद्धा) करते हैं वे शिवश्री (मोक्षलक्ष्मी) के पात्र निकट-मध्य होते हैं, और जो आगे जाकर स्वीकार करेगे वे दूर-भव्य हैं ॥६२।। तात्पत्ति अथ पारमर्षिकसुखं केलिनामेव, संसारिणां ये मन्यते तेऽभव्या इति निरूपयति - णो सद्दहति नैव श्रद्दधति न मन्यन्ते । कि? सोख निविकारपरमालादकसुखं । कथं भूतं न मन्यन्ते ! सुहेसु परमंत्ति सुखेषु मध्ये तदेव परमसुख । केषां सम्मधि यत्सुख ? विगाघादीणं विगतधातिकर्मणां केवलिना । कि कृत्वापि मन्यन्ते ? सुणिदूण "आद सयं समत्तं" इत्यादिपूर्वोक्तगाथात्रयकथितप्रकारेण श्रुत्वापि ते अभवा ते अभव्या: ते हि जीवा वर्तमानकाले सम्यक्त्वरूपभव्य. स्वव्यक्त्यभावादभव्या भण्यन्ते, न पुनः सर्वथा भावात पलिच्छति ये वर्तमानकाले सम्यक्त्वरूपभव्यस्वव्यक्तिपरिणतास्तिष्ठन्ति ते तदनन्तसुख मिदानीं मन्यन्ते । ये च सम्यक्त्वरूप मन्यत्वव्यक्त्या भाविकाले परिणमिष्यन्ति ते च दूरभव्या अग्न श्रद्धानं कुर्यरिति ।। ___ अयमत्रार्थ:--मारणार्थ तलवरगृहीततस्करस्य मरणमिव यद्यपीन्द्रियसुमिष्टं न भवति, तथापि तलवरस्थानीयचारित्रमोहोदयेन मोहितः सन्निरूपरागस्वात्मोत्यसुखमलभमानः सन् सरागसम्यग्दृष्टिसत्मनिन्दादिपरिणतो हेम्णा नदनुभवति : ये नर्गत पदाटम: शुक्षोपयोगिनस्तेषां, मत्स्यानां स्थलगमनमिवाग्निप्रवेश इव या निविकारशुद्धात्मसुखाच्च्यवनमपि दु:खं प्रतिभाति । तथा चोक्त "समसुखशीलितमनसा च्यवनमपि द्वषमेति किमु कामाः। स्थलमपि दहति झषाणां किमङ्ग पुनरङ्गमङ्गारा:" ॥६२।।। एवमभेदन येन केवलज्ञानमेव सुखं भण्यते इति कथनमुख्यतया गाथाचतुष्टयेन चतुर्थस्थलं गतं । उत्थानिका-आगे कहते हैं कि पारमार्थिक सच्चा अतीन्द्रिय आनन्द केवलज्ञानियों के ही होता है, जो कोई संसारियों के भी ऐसा सुख मानते हैं, वे अभव्य हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ— (विगदघादोणं) धातियाकर्मों से रहित केवली भगवन्तों के (सुहेसु परमं त्ति) सुखों के बीच में उत्कृष्ट जो (सोक्खं) विकार-रहित परम आल्हादमयो एक सुख है उसको (सुणिदण) 'जादं सयं समत्त' इत्यादि पहले कहीं हई तीन गाथाओं के कथन प्रमाण सुनकर के भी जान करके भी (ण हि सद्दहति) निश्चय से नहीं श्रयान करते हैं नहीं मानते हैं, (ते अभया) वे अमन्य जीव हैं अथवा वे सर्वथा अभव्य नहीं है किन्तु दूरमध्य हैं, जिनको वर्तमानकाल में सम्यक्त्वरूप भव्यत्वशक्ति को व्यक्ति का अभाव है (वा) तथा (भध्या) जो भव्य जीव हैं अर्थात् जो सम्यकदर्शनरूप भव्यत्वशक्ति की प्रगटता में परिणमन कर रहे हैं। भावार्थ-जिनके भव्यत्वशक्ति को व्यक्ति होने से सम्यक्दर्शन प्रगट हो गया
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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