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________________ ५५४ ] [ पवयणसारो विराधना करता है तो भी महान् कर्मबन्ध होता है। इसलिये साधु उत्सर्ग की अपेक्षा न करके अपवाद मार्ग को त्याग करके शुद्धात्मा को भावना रूप व शुभोपयोग रूप संयम की विराधना न करता हुआ औषधि पथ्य आदि के निमित्त अल्प कर्मबन्ध होते हुए भी बहुत गुणों से पूर्ण उत्सर्ग की अपेक्षा सहित अपवाद को स्वीकार करता है, यह अभिप्राय है। इस तरह 'उवयरणं जिसमो' इत्यादि ग्यारह गाथाओं से अपवाद मार्ग का विशेष वर्णन करते हुये चौथे स्थल का व्याख्यान किया गया। इस तरह पूर्व कहे हुए क्रमसे ही "णिरवेक्खोचागो' इत्यादि तीस गाथाओं से तथा चार स्थलों से अपवाद नाम का दूसरा अधिकार पूर्ण हुआ। __ अतः परं चतुर्दशगाथापर्यन्तं श्रामण्यापरनामा मोक्षमार्गाधिकारः कथ्यते । तत्र चत्वारि स्थलानि भवन्ति, तेषु प्रथमतः आगमाभ्यासमुख्यत्वेन 'एयग्गगदो' इत्यादि यथाक्रमेण प्रथमस्थले गाथाचतुष्टयम्। तदनन्तरं भेदाभेदरलत्रयस्वरूपमेव मोक्षमार्ग इति व्याख्यानरूपेण 'आगमपुवा दिट्ठी' इत्यादि द्वितीयस्थले मूत्रचतुष्टयम् । अत: परं द्रव्यभावसंयमकाथनरूपेण 'चागो य अणारंभों" इत्यादि तृतीयस्थले गाथाचतुष्टयम् । तदनन्तरं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गोपसंहारमुख्यत्वेन मुज्झदि वा' इत्यादि चतुर्थस्थले गाथाद्वयम् । एवं स्थलचतुष्टयेन तृतीयान्तराधिकारे समुदायपातनिका। चौदह गाथाओं में श्रामण्य अर्थात् मोक्षमार्ग नाम का तीसरा अंतर अधिकार कहा जाता है। इसके चार स्थल हैं उनमें से पहले ही आगम के अभ्यास की मुख्यता से "एयग्गगदो" इत्यादि यथाक्रम से पहले स्थल में २३२ से २३५ तक चार गाथाएँ हैं । इसके पीछे भेद व अभेद रत्नत्रय स्वरूप ही मोक्षमार्ग है; ऐसा व्याख्यान करते हुए "आगमपुटवा दिट्ठी" इत्यादि दूसरे स्थल में २३६ ने २३६ तक चार गाथाएं हैं। इसके पीछे द्रव्य व भावसंयम को कहते हुए “चागो य अणारंभो'' इत्यादि तीसरे स्थल में २४२ तक चार गाथाएँ हैं। फिर निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्ग का संकोच करने को मुख्यता से "मुज्झदि वा' इत्यादि चौथे स्थल में २४३ व २४४ गाथा दो हैं। इस तरह तीसरे अन्तर अधिकार में चार स्थलों से समुदायपातनिका है सो ही कहते हैं। अथ श्रामण्यापरनाम्नो मोक्षमार्गस्यैकाग्रयलक्षणस्य प्रज्ञापनं तत्र तन्मूलसाधनभूते प्रथममागम एव व्यापारयत्ति - एयग्गगदो समणो एयग्गं णिच्चिवस्स अत्थेसु । णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेठा ॥२३२॥ ऐकाग्रयगतः श्रमणः ऐकायच निश्चितस्य अर्थेषु । निश्चितिरागमत आगमचेष्टा ततो ज्येष्ठा ॥२३२॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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