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________________ पवयणसारो ] [ ५५३ व्याख्यातम् । इति पूर्वोक्तक्रमेण हि 'णिरवेवखो नागो' इत्यादि त्रिंशद्गाथाभिः स्थलचतुष्टयेनापवादनामा "द्वितीयान्तराधिकारः" समाप्तः । उत्थानिका -- आगे आचार्य कहते हैं कि अपवाद की अपेक्षा बिना उत्सर्ग तथा उत्सर्ग की अपेक्षा बिना अपवाद निषेधने योग्य है । तथा इस बात को व्यतिरेक द्वार से दृढ़ करते हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ - - - (जदि ) यदि (समणो ) साधु (आहारे व विहारे) आहार या विहार में (देसं कालं समं खमं उवधि ते जाणित्ता) देश को, समय को. मार्ग को थकान को, उपवास की क्षमता या सहनशीलता को तथा शरीर रूपी परिग्रह की दशा को इन पांचों को जानकर (दि ) वर्तन करता है ( सो अध्पलेवी ) वह बहुत कम कर्मबन्ध से लिप्त होता है। जो शत्रु मिश्रादि में समान चित्त को रखने वाला साधु तपस्वी के योग्य आहार लेने में तथा विहार करने में नीचे लिखी इन पांच बातों को पहले समझकर वर्तन करता है, वह बहुत कम कर्मबन्ध करने वाला होता है ( १ ) देश या क्षेत्र फँसा है, (२) काल आदि किस तरह का है, (३) मार्ग में कितना श्रम हुआ है व होगा, (४) उपवासादि तप करने को शक्ति है या नहीं, (५) शरीर बालक है, या वृद्ध है या यक्ति है या रोगी है। ये पांच बातें साधु के आचरण के सहकारी पदार्थ हैं । भाव यह है कि यदि कोई साधु पहले कहे प्रमाण कठोर आचरण रूप उत्सर्गमार्ग में ही वर्तन करे और यह विचार करें कि यदि मैं प्राक आहार आदि ग्रहण के निमित्त जाऊँगा तो कुछ कर्मबन्ध होगा इसलिये अपवाद मार्ग में न प्रयतं तो यह फल होगा कि शुद्धोपयोग में निश्चलता न पाकर चित्त में आर्तध्यान से संक्लेशभाव हो जायेगा तब शरीर त्याग कर पूर्वकृत पुण्य से यदि देवलोक में चला गया तो वहां दीर्घकाल तक संयम का अभाव होने से महान कर्म का बन्ध होवेगा इसलिये अपवाद की अपेक्षा न करके उत्सर्गमार्ग को साधु त्याग देता है तथा शुद्धात्मा को भावना को साधन कराने वाला थोड़ा-सा कर्मबन्ध हो तो भी लाभ अधिक है ऐसा जानकर अपवाद की अपेक्षा सहित उत्सर्गमार्ग को स्वीकार करता है। क्रम से कोई अपहृतसंयम शब्द से कहने योग्य अपवादमार्ग करता हुआ यदि किसी कारण से औषधि, पथ्य आदि के लेने में मय करके रोग का उपाय न करके शुद्ध आत्मा की भावना को महान् कर्म का बन्ध होता है अथवा व्याधि के उपाय में प्रवर्तता हुआ भी हरीतकी अर्थात् हरड़के बहाने गुड़ खाने के समान इन्द्रियों के सुख में लम्पटी होकर संयम की तैसे हो पूर्व सूत्र में कहे में प्रवर्तता है वहां वर्तन कुछ कर्मबन्ध होगा ऐसा नहीं करता है तो उसके
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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