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________________ ५०६ ] [ पवयणसारो का सहकारी कारण होने से जिसका निषेध नहीं है ऐसे केवल देहमात्र परिग्रह में, (६) मात्र अन्योन्य बोध्य-बोधक रूप से जिनका कथंचित् परिचय पाया जाता है ऐसे अन्य मुनि में, और (७) शब्द रूप पुद्गलपर्याय के साथ वाच्य-वाचक संबंध से जिसमें चैतन्य रूपी भित्ति का भाग मलिन होता है, ऐसी शुद्धात्मद्रव्य से विरुद्ध कथा में इन सब में लोन होना निषेव्य-त्यागने योग्य है अर्थात् उनके विकल्पों से भी चित्त भूमिको चित्रित होने देना योग्य नहीं है ॥२१५॥ तात्पर्यवृत्ति अथ श्रामण्यछेदकारणत्वात्प्रासुकाहारादिष्वपि ममत्वं निषेधयति ; णेच्छवि नेच्छति । कम् ? बिचं निबद्धमाबद्धम् । क्व ? भते वा शुद्धात्मभावनासहकारिभूतदेहस्थितिहेतुत्वेन गृह्यमाणं भक्ते वा प्रासुकाहारे खवणे वा इन्द्रियदर्पविनाशकारणभूत्तवेन निर्विकल्पसमाधिहेतुभूते क्षपणे वानशने आवसधे वा परमात्मतत्त्वोपलब्धिसहकारिभुते गिरिगुहाद्यावसथे वा पुगो विहारे वा शुद्धात्मभावनासहकारिभूताहारनीहारार्थव्यवहारार्थव्यवहारे वा । पुनर्देशान्तर विहारे वा उधिम्हि शुद्धोपयोगभावनासहकारि भूतसरी र परिग्रहे ज्ञानोपयोगकरणादौ वा समम्हि परमात्मपदार्थविचारसहतारिकारणभूते श्रमणे समशीलसंघातकतपोधने वा विकहि परमसमाधिविघातशृङ्गारवीररागादिकथायां चेति । अयमत्रार्थ:-आगमविरुद्धाहारविहारादिषु तावत्पूर्वमेव निषिद्धः । योग्याहारविहारादिष्वपि ममत्वं न कर्तव्यमिति ॥२१५॥ एवं संक्षेपेणाचाराधनादिकथिततपोधनविहारव्याख्यानमुख्यत्वेन चतुर्थस्थले गाथात्रयं गतम् । उस्थानिका-आगे कहते हैं कि प्रासुक आहार आदि में भी जो ममत्व है वह मुनिपद के भंग का कारण है इसलिये आहारादि में भी ममत्व न करना चाहिये अन्वय सहित विशेषार्थ- साधु (भत्ते) भोजन में (वा) अथवा (खवणे) उपवास करने में (याआवसधे) अथवा वस्तिका में (वा विहारे) विहार करने में, (चा उवधम्हि) अथवा शरीर मात्र परिग्रह में (वा समणम्हि) अथवा मुनियों में (पुणो विकम्हि) या विकथाओं में (णिबद्धं) ममतारूप सम्बन्ध को (जेच्छदि) नहीं चाहता है । साधु महाराज शुद्धात्मा की भावना के सहकारी शरीर की स्थिति के हेतु से प्रासुक आहार लेते हैं सो भक्त हैं, इन्द्रियों के अभिमान को विनाश करने के प्रयोजन से तथा निर्विकल्पसमाधि में प्राप्त होने के लिये उपवास करते हैं सो क्षपण है, परमात्मतत्व की प्राप्ति के लिये सहकारी कारण पर्वत को गुफा आदि वसने का स्थान सो आवसथ है, शुद्धात्मा की भावना के सहकारी कारण आहार नोहार आदिक व्यवहार के लिये व देशान्तर के लिये विहार करना सो विहार है, शुद्धात्मा की भावना के सहकारी कारण रूप शरीर को धारण करना व ज्ञान का उपकरण शास्त्र, शौचोपकरण कमंडलु, दया का उपकरण पिच्छिका इनमें ममताभाव सो उपधि है, परमा
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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