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________________ पवयणसारो ] स्वद्रव्यक्षेत्रकालमावरस्तिस्थवद ॥३॥ मास्तित्वनयेनानयोमयागुणकार्मु कान्तरालवस्य॑सहितावस्थालक्ष्योन्मुखप्राक्तनविशिस्त्रवत् परद्रव्यक्षेत्रकालभावास्तित्ववत् ॥४॥ अस्तित्वनास्तिस्वनयेनायोमयानयोमयगुणकार्मु कान्सरालवय॑गुणकामु कान्तरालतिसहितावस्थासहितावस्थलक्ष्योन्मुखालक्ष्योन्मुख . प्राक्तनविशिवपक्ष कमतः स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालालित्यनामिकामात । अबक्तव्यनयनायोमयानयोमयगुणकामुकास्तरालवार्यगुणकार्मुकास्तरालवतिसंहितावस्थासंहितावस्थलक्ष्योन्मुखालक्ष्योन्मुखप्राक्तन . विशिस्त्रवत् युगपत्स्थपरजम्यक्षेत्रकाखमावरवक्तव्यम् ॥६॥ आत्मन्नध्य मास्तित्वमय से परद्रव्य-क्षेत्र काल-भाष से नास्तित्व वाला है,-- अलोहमय, प्रत्यया और धनुष के मध्य में अनिहित, संधानवशा में न रहे हुए और अलक्ष्योन्मुख पहले के बाण की भांति । (जैसे पहले का वाण अन्य बाण के द्रव्य की अपेक्षा से अलोहमय है, अभ्य बाण के क्षेत्र की अपेक्षा से प्रत्यञ्चा और धनुष के मध्य में निहित नहीं है, अन्य माण के काल की अपेक्षा से संधान दशा में नहीं रहा हुआ है और अन्य बाण के भाष की अपेक्षा से अलक्ष्योन्मुख है, उसी प्रकार आत्मा अन्य द्रव्य की अपेक्षा चेतन नहीं है, अन्य द्रव्य के क्षेत्र की अपेक्षा उस क्षेत्र में नहीं है, अन्य द्रव्य के काल को अपेक्षा उस पर्याय रूप नहीं है, अन्य द्रश्य के स्वभाव की अपेक्षा पदार्थों को नहीं जान रहा है ॥४॥ ___ आत्मद्रव्य अस्तित्त्व-नास्तित्त्व नयसे क्रमशः स्व-पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्व नास्तित्व वाला है-लोहमय तथा अलोहमय, प्रत्यंचा और धनुष के मध्य में निहित तथा प्रत्यंचा और धनुष के मध्य में अनिहित, संधान अवस्था में रहे हुये तथा संधान अवस्था में न रहे हए और लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख ऐसे पहले के वाण की भांति । जैसे पहले का बाण क्रमशः स्वचतुष्टय को तथा परचतुष्टय की अपेक्षा से लोहमयादि और अलोहमयादि है उसी प्रकार आत्मा अस्तित्व-नास्तित्वनय से क्रमशः स्वचतुष्टय की और पर चतुष्टय को अपेक्षा से वेतनमयादि और अधेतनमयादि है। ॥५॥ आत्मप्र अबक्तव्यनय से युगपत् स्वपर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अबक्तब्य है,-- लोहमय तथा अलोहमय, प्रत्यंचा और धनुष के मध्य में निहित तथा प्रत्यंचा और धनुष के माय में अनिहित, संधान अवस्था में रहे हए तथा संधान अवस्था में न रहे हए और लक्ष्योन्मुख तथा अलक्ष्योन्मुख ऐसे पहले के वाण की भांति (जैसे पहले का वाण युगपत स्वचतुष्टय की और परचतुष्टय की अपेक्षा से युगपत् लोहमयादि तथा अलोहमयादि होने से अवक्तव्य है, उसी प्रकार आत्मा अवक्तव्य नय से युगपत् स्वचतुष्टय और परचतुष्टय की अपेक्षा वेतनमय और अचेतनमय आदि होने से अबक्तव्य है।) ॥६॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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