SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७८ ], [ पवयणसारो सूचना-इनको स्वयं ग्रन्थकार आगे स्पष्ट करते हैं। तात्पर्यवृत्ति अथ द्रव्यस्य द्रव्याथिकपर्यायार्थिकनयाभ्यां सदुप्पादासदुत्पादौ दशयति एवंविसभावे एवंविधसद्भावे सत्तालक्षणमुत्पादव्ययधोब्यलक्षणं गुणपर्यायलक्षणं द्रव्यं चेत्येवंविधपूर्वोक्तसद्भावे स्थितं अथवा एवंविह सहावे इति पाठान्तरम् । तत्रैवविधं पूर्वोक्तलक्षणं स्वकीयसद्भावेस्थितं । कि ? दध्वं द्रव्यं कर्तृ । किं करोति ? सया लहदि सदासर्वकालं लभते । कं कर्मतापन्न ? पादुम्भा प्रादुर्भावमुत्पादं कथम्भूतं ? सबसम्भावणिबद्ध सद्भावनिबद्धमसद्भाबनिबद्धं च । काभ्यां कृत्वा ? दश्वत्थपज्जयत्थेहि द्रश्यार्थिकपर्यायाथिकनयाभ्यामिति । तथाहि—यथा यदा काले द्रव्यार्थिकनयेन विवक्षा क्रियते यदेव कटकपर्याये सुवर्ण तदेव कङ्कणपर्याये नान्यदिति, तदा काले सद्भावनिबद्ध एवोत्पादः । कस्मादिति चेत् ? द्रव्यस्य द्रव्यरूपेणाविनष्टत्वात् । पदा पुनः पर्याय विवक्षा क्रियते कटकपर्यायात् सकाशादायी मा कङ्कणपर्याधः सुवर्णसम्बन्धा स एव न भवति । तदा पुनरसदुत्पादः कस्मादिति चेत् ? पूर्वपर्यायस्य विनष्टत्वात् । तथा यदा द्रव्याथिकनयविवक्षा क्रियते य एवं पूर्व गृहस्थावस्थायामेवमेवं गृहव्यापारं कृतवान् पश्चाग्जिनदीक्षां गृहीत्वा स एवेदानी रामादिकेवलीपुरुषो निश्चयरत्नत्रयात्मकपरमात्मध्यानेनानन्तसुखामृत तृप्तो जातः, न चान्य इति । तदा सद्भावनिबद्ध एवोत्पादः । कस्मादिति चेत् । पुरुषत्वेनाविनष्टत्वात् । यदा तु पर्याय नवविवक्षा क्रियते । पूर्व सरागावस्थायाः सकाशादन्योऽयं भरतसगररामपाण्डवादिकेवलिपुरुषाणां सम्बन्धी निरुपरागपरमात्मपर्यायः स एव न भवति । तदा पुनरसद्भावनिबद्ध एवोत्पादः । कस्मादिति चेत् ? पूर्वपर्यायादन्यत्वादिति । यथेदं जीवद्रव्ये सदुत्पादासदुत्पादव्याख्यानं कृतं यथा सर्बद्रव्येषु यथासंभ्भव ज्ञात व्यमिति ।।१११॥ उत्थानिका—आगे द्रव्य का द्रव्याथिकनय से सत् उत्पाद और पर्यायार्थिकनय से असत् उत्पाद दिखलाते हैं ___ अन्वय सहित विशेषार्थ--(एवं विह) इस तरह के (सबमावे) स्वभाव रखते हुए (द बं) द्रष्य (वस्वस्थ पज्जयत्थेहिं) द्रव्याथिक और पर्यायाथिकनय की अपेक्षा से (सदसम्भावणिबद्ध) सद्भाव रूप और असद्भाव रूप (पादुठमाव) उत्पाद को (सया लहदि) सदा ही प्राप्त होता रहता है। जैसे सुवर्ण द्रव्य में जिस समय द्रव्याथिकनय की विवक्षा की जाती है अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा से विचार किया जाता है, उस समय ही कटक रूप पर्याय में जो सुवर्ण है वही सुवर्ण उसकी कंकण पर्याय में है-दूसरा नहीं है। इस अवसर पर सद्भाव उत्पाद ही है क्योंकि द्रव्य अपने द्रव्य रूप से नष्ट नहीं हुआ किन्तु बराबर बना रहा और जब पर्याय मात्र की अपेक्षा से विचार किया जाता है तब सुवर्ण की जो पहले कटकरूप पर्याय थी उससे अब वर्तमान को कंकण रूप पर्याय भिन्न हो है । इस अवसर पर असत्
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy