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________________ पवयणसारो ] [ २७१ जो द्रव्य है सो स्वरूप से गुण नहीं है । जो मुक्त जीवद्रव्य है, वह शुद्ध सत्तागुण नहीं है उस मुक्त जीव द्रव्य शब्द से शुद्ध सत्ता गुण वाध्य नहीं होता है अर्थात् नहीं कहा जाता है । जो गुण है वह वास्तव में द्रव्य नहीं होता। इसी तरह जो शुद्ध सत्ता गुण है वह परमार्थ से मुक्तात्मा-द्रव्य नहीं होता है। शुद्ध सत्ता शब्द से मुक्तात्मा द्रव्य नहीं कहा जाता । यही अतद्भाव का लक्षण हैं । इस तरह गुण और गुणी में स्वरूप को अपेक्षा या संज्ञादि की अनेक्षा भेद है तो भी प्रदेशों का भेद नहीं है । इसमें सर्वथा एक का दूसरे में अभाव नहीं है ऐसा सर्वज्ञ भगवान ने कहा हैपधि गुणी में गुण का सर्वथा अभाव माना जाये तो क्या-क्या दोष होंगे उनको समझाते हैं । असे सत्ता नाम के वाचक शब्द से मुक्तात्मा द्रव्य वाच्य नहीं होता तैसे यदि सत्ता के प्रदेशों से भी सत्तागुण के मुक्तात्म द्रव्य भिन्न हो जाये तब जैसे जीव के प्रदेशों से पुद्गल द्रव्य भिन्न होता हुआ अन्य व्रव्य है तैसे सत्ता गुण के प्रदेशों से सत्ता गुण से मुक्त जीव द्रव्य भिन्न होता हुआ मिन्न ही दूसरा द्रव्य प्राप्त हो जावे। तब यह सिद्ध होगा कि सत्तागुण । म निम्न द्रव्य और मुक्तात्मा द्रव्य भिन्न इस तरह दो द्रव्य हो जावेगे। सो ऐसा वस्तु स्वरूप नहीं है । इसके सिवाय दूसरा दूषण यह प्राप्त होगा कि जैसे सुवर्णपना नामा गुण के प्रदेशों से सुवर्ण भिन्न होता हुआ अभाव रूप हो जाएगा जैसे ही सुवर्ण द्रव्य के गों से सुवर्णपना गुण भिन्न होता हुआ अभाव रूप हो जायगा से सत्ता गुण के प्रदेशों । से मुक्त जीवनध्य भिन्न होता हुआ अभावरूप हो जाएगा, तैसे ही मुक्त जीव द्रव्य के प्रदेशों सत्ता गुण भिन्न होता हुआ अभाव रूप हो जाएगा, इस तरह दोनों का शून्यपना प्राप्त हो जायगा । इस तरह गुणी और गुण का सर्वथा भेद मानने से दोष आजावेंगे । जैसे जहां त जीव द्रष्य में सत्ता गुण के साथ संज्ञा आदि के भेद से अन्यपना है किन्तु प्रदेशों की अपेक्षा मभेद या एकपना है ऐसा व्याख्यान किया गया है तसे ही सर्व द्रव्यो में यथासम्भव मान लेना चाहिये, ऐसा अर्थ है ॥१०॥ - इस तरह दध्य के अस्तित्व को कथन करते हुए प्रथम गाथा, पृथकत्व लक्षण और भाष रूप अन्यत्व लक्षण को कहते हुए दूसरी पाथा, संज्ञा लक्षण प्रयोजनादि से भेदरूप अत. माव.को कहते हुए तीसरी गाथा, उसी को दृढ़ करने के लिये चौथी गाथा, इस तरह द्रव्य और गुण ३. सिमेव है इस विषय में युक्ति द्वारा कथन की मुख्यता से चार गाथाओं से पांचवां स्थल में हुआ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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