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________________ पवयणसारो ] [ ३८६ चेतनद्रव्यत्वमस्ति, तानि खलु मां कर्तारमन्तरेणापि क्रियमाणानि । ततोऽहं तत्कर्तृत्वपक्षपातमपास्यास्म्ययमत्यन्तं मध्यस्थः। न च मे स्वतन्नशरीरवाङ्मनःकारकाचेतनद्रव्यप्रयोजकत्वमस्ति, तानि खलु मां कारकप्रयोजकमत्सरेणापि क्रियमाणानि । ततोऽहं तत्कारकप्रयोजकत्वपक्षपातमपास्यास्म्ययमत्यन्तं मध्यस्थः । न च मे स्वतन्त्रशरीरवाइमनःकारकाचेतनद्रव्यानुज्ञातृत्वमस्ति, तानि खलु मां कारकानुज्ञातारमन्तरेणापि क्रियमाणानि ततोऽहं तत्कारकानुज्ञातृत्वपक्षपातमपास्यास्म्ययमत्यन्तं मध्यस्थः ॥१६०॥ भूमिका-अब, शरीरादि परद्रव्य के प्रति भी मध्यस्थता प्रगट करते हैं अन्वयार्थ....[अहं न लेहः ] मैं न ढूं. म मन:] न मन हूं, [च] और न वाणी एव] न बाणी ही हूं, [तेषां कारणं न ] उनका (उपादान) कारण नहीं हूँ [कर्ता न] कर्ता नहीं हूँ, [कारयिता न कराने वाला नहीं हूं, [कर्तृणां अनुमन्ता न एव] (और) कर्ता का अनुमोदक नहीं हूँ। टीका-मैं शरीर, वाणी और मन को परद्रव्यरूप से समझता हूँ, इसलिये उनमें मेरा कुछ भी पक्षपात नहीं है । मैं उन सबके प्रति अत्यन्त मध्यस्थ हूँ। यथा :-वास्तव में शरीर-वाणी और मन के स्वरूप का आधार भूत अचेतन द्रव्य नहीं हूं, मेरे स्वरूपाधार (हये) विना भी, वे वास्तव में अपने स्वरूप को धारण करते हैं। इसलिये शरीर, वाणी और मन का पक्षपात छोड़कर मैं अत्यन्त मध्यस्थ हैं। मैं शरीर-वाणी तथा मन का (उपादान) कारण अचेतन द्रव्य नहीं हूँ। मेरे कारण (हुये) बिना भी, वे वास्तव में कारणवान् हैं। इसलिये उनके कारणत्व का पक्षपात छोड़कर यह मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूं। मैं स्वतन्त्र ऐसे शरीर, वाणी तथा मन का (उपादान) कर्ता अचेतन द्रव्य नहीं हैं। मेरे कर्ता (हये) विना भी, वे वास्तव में किये जाते हैं । इसलिये उनके कर्तृत्व का पक्षपात छोड़कर यह मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूँ। मैं स्वतन्त्र ऐसे शरीर, वाणी तथा मनका (उपादान) कारक (कर्ता) जो अचेतन द्रव्य है उसका प्रयोजक नहीं हूं। मेरे कारक प्रयोजक (हुये) बिना भी (अर्थात मेरे उनके कर्ता का प्रयोजक, उनके कराने वाला हुये बिना भी) वे वास्तव में किये जाते हैं। इसलिये उनके कर्ता के प्रयोजकत्व का पक्षपात छोड़कर यह मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूँ। मैं स्वतन्त्र ऐसे शरीर, वाणी तथा मनका (उपादान) कारक जो अचेतन द्रव्य है, उसका अनुमोवक नहीं हूं। मेरे कारक-अनुमोदक (हुये) मिना भी (उनके कर्ता का अनुमोदक हुये बिना भी) थे वास्तन में किये जाते हैं। इसलिये उनके कर्ता के अनुमोदकत्व का पक्षपात छोड़कर यह मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूँ ॥१६०॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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