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________________ पवयणसारो ] । १२५ वहां (उनमें से) पहला ज्ञान तथा सुख (१) मूर्तरूप (२) क्षायोपमिक (३) उपयोग शक्तियों से उस उस प्रकार की इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न होता हुआ, पराधीन होने से कादानिक (अनित्य) क्रमशः प्रवृत्त होने वाला, सप्रतिपक्ष और हानि-वृद्धियुक्त है। इसलिये गौण है, और गौण होकर वह हेय है । दूसरा ज्ञान तथा सुख (१) अमूर्तरूप (२) चैतन्यानुविधायी, (३) एकाकी, (४) आत्म-परिणाम-शक्तियों से तथाविध अतीन्द्रिय, (५) स्वाभाविक चिवाकार परिणामों के द्वारा उत्पन्न होता हुआ अत्यन्त आत्माधीन होने से नित्य, युगपत् प्रवर्तमान, निःप्रतिपक्ष, और हानि वृद्धि से रहित है। इसलिये मुख्य है और मुख्य होकर वह (अमूर्त-अतीन्द्रिय ज्ञान और सुख) उपादेय हैं ॥५३॥ तात्पर्यवृत्ति __ अचातीन्द्रियसुखस्योपादेयभूतस्य स्वरूप प्रपञ्चयनतीन्द्रियज्ञानमतीन्द्रियसुखं चोपादेयमिति, यत्पूनरिन्द्रियज झानं सुखं च तद्धेयमिति प्रतिपादनरूपेण प्रथमतस्तावदधिकारस्थलगाथया स्थलचतुष्ठयं सूत्रय ति,-- ___ अस्थि अस्ति विद्यते । किं कर्त ? णाणं ज्ञान मिति भिन्नप्रक्रमो व्यवहितसम्बन्धः । किविशिष्टं ? अमुत्तं मृत्तं अमृत मूर्त च । पुनरपि किविशिष्टं ? अविदियं इंवियं च यदमूर्त तदतीन्द्रियंमतं पुनरिन्द्रियजं । इत्थंभूतं ज्ञानमस्ति । केषु विषयेषु ? अस्थेसु ज्ञेयपदार्थेष, तहा सोक्खं च तथव जानवदमूर्तमतीन्द्रियं भूत मिन्द्रियजं च सुखमिति । ज तेसु परं च तं यं यत्तेषु पूर्वोक्तज्ञानसुखेषु मध्ये परमुत्कृष्टमतीन्द्रियं तदुपादेवमिति ज्ञातव्यम् । तदेव विवियते-अमर्ताभि: क्षायिकीभिरतीन्द्रियाभिश्चिदानन्दै कलक्षणाभिः शुद्धात्मशक्तिभिरुपनत्वादतीन्द्रियज्ञानं सुखं चात्माधीनत्वेनाविनश्वरत्वादुपादेयमिति पूर्वोक्त।मूर्तशुद्धात्मशक्तिभ्यो विलक्षणाभि: क्षायोपमिकेन्द्रियशक्तिभिरुत्पन्नत्वादिन्द्रियजं ज्ञानं सुखं च परायत्तत्वेन विनश्वरत्वाद्धेयमिति तात्पर्यम् ॥५३।। एवमधिकारगाय या प्रथमस्थलं गतम् __उत्थानिका—आगे अतीन्द्रियसुख जो उपादेय रूप है उसका स्वरूप कहते हुये अतीन्द्रियज्ञान तथा अतीन्द्रियसुख उपादेय है और इन्द्रियजनितज्ञान और सुख हेय हैं इस तरह कहते हुये पहले अधिकार स्थल की गाथा से चार स्थल का सूत्र कहते हैं। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(अस्थेसु) झेय पदार्थों के सम्बन्ध में (णाणं) ज्ञान (अमुत्तं) जो अमूर्तिक है सो (अदिदिय) अतीन्द्रिय है तथा (मुत्तं) जो मूर्तिक है सो (इन्दियं) इन्द्रिय-जन्य (अस्थि) है (तहा च सोक्ख) तैसे ही अर्थात् ज्ञान की तरह अमूर्तिकसुख अतीन्द्रिय है तथा मूर्तिकसुख इन्द्रिय-जन्य है (तेसु जं परं) इन ज्ञान और सुखों में जो उत्कृष्ट अतीन्द्रिय हैं (तं च यं) उनको ही, उपाश्य हैं ऐसा जानना चाहिये ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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