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________________ ५२४ ] [ पवयणसारो अन्वयार्थ-[अथ] जबकि [जिनवरेन्द्राः] जिनवरेन्द्रों ने [अपुनर्भवकामिनः] मोक्षाभिलापो के, [संगः इति] देह परिग्रह है' यह कहकर [देहे अपि] देह में भी [निःप्रतिकर्मत्वम्] अप्रतिकर्मत्व (संस्काररहितत्व) का [उदिदष्टधन्तः] उपदेश दिया है, तब [कि किंचनम् इति तर्क:] अन्य परिग्रह का विधान तो कैसे हो सकता है ? टीका-यहां श्रामण्यपर्याय का सहकारी कारण होने से जिसका निषेध नहीं किया गया ऐसे अत्यन्त मिले हुए शरीर में भी, 'यह शरीर परद्रव्य होने से परिग्रह है, वास्तव में यह अनुग्रह योग्य नहीं, किन्तु उपेक्षा योग्य ही है', ऐसा कहकर, भगवस्त अहसदेवों ने निमरत का उशि शिया है. नर वहां शुद्धात्मतत्वोपलब्धि की संभावना के रसिक पुरुषों के शेष बेचारा अनुपात्त (शरीर से पृथक् ) परिग्रह कैसे ग्राह्य हो सकता है ? ऐसा उनका (अहंल देवों का) आशय व्यक्त हो है। इससे निश्चित होता है कि-उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं। तात्पर्य यह कि वस्तुधर्म होने से परम निग्रंथत्व ही अवलम्बन योग्य है ॥२२४॥ तात्पर्यवृत्ति अथ सर्वसङ्गपरित्याग एव श्रेष्ठः शेषमशक्यानुष्ठानमिति प्ररूपयति कि किंधण ति तक्कं कि किंचनमिति तर्क: किं किंचन परिग्रह इति तर्को विचारः क्रियते तावत् । कस्य ? अपुणभवकामिणो अपुनर्भबकामिन: अनन्तज्ञानादिचतुष्टयात्ममोक्षाभिलाषिण: अथ अहो देहोवि देहोऽपि संगोत्ति सङ्गः परिग्रह इति हेतोः जिणरिंदा जिनवरेन्द्राः कर्तारः णिप्पडिकम्मतमुहिछा निःप्रतिकर्मत्वमुपदिष्टवन्तः । शुद्धोपयोगलक्षणपरमोपेक्षासंयमवलेन देहेऽपि निःप्रतिकारित्वं कथितवन्त इति। तता ज्ञायते मोक्षसुखाभिलाषिणां निश्चयेन देहादिसर्वसङ्गपरित्याग एवोचितोऽन्यस्तूपचार एवेति ।।२२४।। एवमपवादव्याख्यानरूपेण द्वितीयस्थले गाथात्रयं गतम् । उत्थानिका--आगे फिर आचार्य यही कहते हैं कि सर्व परिग्रह का त्याग ही श्रेष्ठ है। जो कुछ उपकरण रखना है वह अशक्यानुष्ठान है- अपवाद है __ अन्वय सहित विशेषार्थ-(अथ) अहो (अपुणभवकामिणो) पुनः भवरहित ऐसे मोक्ष के इच्छुक साध के (देहोधि) शरीरमात्र भी (संगोत्ति) परिग्रह है ऐसा जानकर (जिणचरिंदा) जिनवरेंद्रों ने (णिप्पडिकम्मतं) ममता रहित भाव को ही उत्तम (उद्दिट्ठा) कहा है (किं किचनत्ति तक्क) ऐसी दशा में साधु के क्या परिग्रह है यह मात्र एक तर्क ही है अर्थात् अन्य उपकरणादि परिग्रहका विचार भी नहीं हो सकता । अनन्तज्ञानादि चतुष्टय रूप जो मोक्ष है उसकी प्राप्ति के अभिलाषी साध के शरीर मात्र भी जब परिग्रह है तब
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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