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________________ १८२ ] [ पवयणसारो जीव के अवश्य ही निराश्रयता के कारण से मोहांधकार नष्ट हो जाता है। यदि ऐसा है तो मेरे द्वारा मोह को सेना को जीतने के लिये उपाय प्राप्त कर लिया गया ॥८॥ तात्पर्यवृत्ति अथ "चत्तापायारंभ" इत्यादि सूत्रेण यदुक्तं शखोपयोगाभावे मोहादिविनाशो न भवति, मोहादिबिनाशाभावेन शद्धात्मलाभो न भवति तदर्थमेवेदानीमुपायं समालोचति जो जाणवि अरहंतं यः कर्ता जानाति । के ? महन्तं । कैः कृत्वा ? बव्यत्तगुणसपज्जयहि द्रव्यत्वगुणत्वपोयत्वः सो जादि अपाणं स पुरुषोऽर्हत्परिज्ञानात्पश्चादात्मानं जानाति मोहो खलु जाइ सस्स लयं तत आत्मपरिज्ञानात्तस्य मोही दर्शनमोहो लयं विनाशंक्षयं यातीति । तद्यया- केवलज्ञानादयो दिघोषगुणा, अस्तित्वादयः सामान्य गुणाः, परमौदारिकशरोराकारेण यदात्म-प्रदेशानामवस्थान स व्यञ्जनपर्याय:, अगुरुलघुकगुणषडवृद्धिहानिरूपेण प्रतिक्षणं प्रवर्तमाना अर्थपर्यायाः एवं लक्षणगुणपर्यायाधारभूतममूर्तमसंख्यातप्रदेशं शुद्धचंतन्यान्वयरूपं द्रव्यं वेति, इत्थंभूतं द्रव्यगुणपर्यायस्वरूपं पूर्वमहदभिधाने परमात्मनि ज्ञात्वा पश्चाग्निश्चयनयेन तदेवागमसारपदभूतयाऽध्यात्मभाषया निजशुद्धात्मभावनाभिमुखरूपेण सविकल्पस्वसंदवेनज्ञानेन तथैवागमभाषयाधःप्रवत्तिकरणापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसंज्ञदर्शनमोहक्षपणसमर्थपरिणामविशेषबलेन पश्चादात्मनि योजयति । तदनन्तरमविकल्प स्वरूप रूपे प्राप्ते, यथा पर्यायस्थानीय मुक्ताफलानि गुणस्थामौर्य वलयं पाभवनयेन हार एवं, तथापूर्वोक्तद्रव्यगुणपर्याया अभेदनयेनात्मैवेति भावयतो दर्शनमोहान्धारः प्रलीयते । इति भावार्थः ।।८।। उत्थानिका-आगे "चत्तापावारम्भ' इत्यादि सूत्र से जो कहा जा चुका है कि शुद्धोपयोग के बिना मोह आदि का नाश नहीं होता है और मोहादि के नाश के बिना शुद्धात्मा का लाभ नहीं होता है, उस ही शुद्धात्मा के लाभ के लिये अब उपाय बताते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो) जो कोई (अरहत) अरहंत भगवान् को (बव्वत्तगुणतपज्जत्तेहि) द्रव्यपने, गुणपने, तथा पर्यायपने को (जाणदि) जानता है (सो) वह पुरुष (अप्पाणं जाणादि) अहंत के ज्ञान के पीछे अपने आत्मा को जानता है । उस आत्मज्ञान के प्रताप से (तस्स मोहो) उस पुरुष का दर्शनमोह (खल लयं जादि) निश्चय से क्षय हो जाता है। इसका विस्तार यह है कि अहंत मात्मा के केवलज्ञान आदि विशेष गुण हैं। अस्तित्व आदि सामान्य गुण हैं । परम औदारिकशरीर के आकार जो आत्मा के प्रदेशों का होना सो व्यंजनपर्याय है। अगुरुलघुगण द्वारा छः प्रकार वृद्धि-हानि रूप से वर्तन करने वाली अर्थ-पर्याय हैं। इस तरह लक्षणधारी गुण और पर्यायों के आधाररूप, अमूर्तिक असंख्यात प्रदेशी, शुद्ध चैतन्यमयी अन्वयरूप अर्थात् नित्यस्वरूप अरहंत द्रव्य है । इस तरह द्रव्य गुण पर्याय स्वरूप अरहंत परमात्मा को पहले जानकर फिर निश्चयनय से उसी द्रव्यगुण पर्याय को आगम की सारभूत जो अध्यात्मभाषा है, उसके द्वारा अपने शुद्ध आत्मा
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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