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________________ पवयणसारो ] [ १८१ भूमिका-अब कैसे मेरे द्वारा मोह की सेना जीतने योग्य है, इसके उपाय को सोचते हैं___अन्वयार्थ--[यः] जो [अरहत] अरहन्त को [द्रच्यत्वगुणत्वपर्ययत्वः] द्रव्यपने, गुणपने और पर्यायपने द्वारा [जानाति] जानता है, [सः] वह [आत्मानं ] (अपने) आत्मा को [जानाति] जानता है और [तस्य मोहः] उस जीव का मोह [खलु] अवश्य [लयं याति] नाश को प्राप्त होता है। टीका-जो वास्तव में अरहंत को द्रव्य रूप से गुण रूप से और पर्याय रूप से जानता है वह वास्तव में अपने आत्मा को जानता है क्योंकि दोनों (अरहंत और अपनी आत्मा) में निश्चय से अन्तर नहीं है। अरहंत का रूप भी अन्तिम ताब को प्राप्त सोने के स्वरूप की भांति परिस्पष्ट (शुद्ध) आत्मा का रूप (ही) है, इस कारण से उनका (मरहन्त का) ज्ञान होने पर सर्व आत्मा का ज्ञान होता है। वहाँ (अरहन्त में) अन्धय रूप द्रव्य है, अन्दय का विशेषण गुण है, और अन्वय के व्यतिरेक (भिन्न-मिन्न, क्रम से होने वाली) पर्यायें हैं । यहाँ सर्वतः विशुद्ध भगवान् अरहन्त में (जीव) तीनों प्रकार युक्त समय को भी (द्रव्य गुण पर्यायमय निज आत्मा को भी) अपने मन से देख लेता है। जो यह चेतन है, यह अन्वय है, वह द्रव्य है, जो अन्वय के आश्रय रहने वाला चंतन्य है, यह विशेषण है, वह गुण है, और जो एक समय मात्र मर्यादित काल परिमाण के कारण से परस्पर भिन्न-भिन्न अन्वय के व्यतिरेक हैं वे पर्याय हैं जो कि चिद्विवर्तन की (आत्मा के परिणमन को) ग्रन्थियाँ (गांठे) हैं। इस प्रकार अरहन्त के द्रव्य गुण पर्याय का स्वरूप है। अब, (१) इस प्रकार कालिक को भी (त्रिकाल इसी स्वभाव को धारण करने वाली अपनी आत्मा को भी) एक काल में समझ लेने वाले, (२) झूलते हुए हार में मोतियों की तरह (जैसे मोतियों को झूलते हुए हार में अन्तर्गत माना जाता है उसी प्रकार चिवियतों को (चैतन्य पर्यायों को) चेतन में हो अन्तर्गत करके तथा विशेषण विशेष्यता की वासना का अन्तर्धान होने से, हार में सफेदी की तरह (जैसे सफेदी को हार में अन्तहित किया जाता है, उसी प्रकार) चैतन्य को चेतन में ही अन्तहित करके केवल हार की तरह (जैसे मोती व सफेदी आदि के विकल्प को छोड़कर मात्र हार को जानता है, उसी प्रकार) केवल आत्मा को जानने वाले, (३) उसके उत्तर क्षण में कर्ता-कर्मक्रिया का विभाग नाश को प्राप्त हो जाने के निष्क्रिय चिन्मात्र भाव को प्राप्त होने वाले, (४) उत्तम मणि की भांति अकम्परूप से प्रवंत रहा है निर्मल प्रकाश जिसका, ऐसे उस
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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