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________________ ३० । [ पवयणसारो होता है । इसलिए वह (सुख) सर्वथा प्रार्थनीय (वाञ्छनीय) है (उपादेयपने से निरन्तर भावना करने योग्य है) ॥१३॥ तात्पर्यवृत्ति अथ शुभाशुभोपयोगद्वयं निश्च यनयेन हेयं ज्ञात्वा शुद्धोपयोगाधिकार प्रारभमाण:, शुद्धात्मभावनामात्मसात्कुर्वाणः सन, स्वस्वभावजीवस्य प्रोत्साहनार्थ शुद्धोपयोगफलं प्रकाशयति 1 अथवा द्वितीयपातनिका-यद्यपि शुद्धोपयोगफलमग्ने ज्ञानं सुखं च संक्षेपेण विस्तरेण च कथयति तथान्यत्रापि पीठिकायां सूचनां करोति । अथवा तृतीयपातनिकापूर्व शुद्धोपयोगफलं निर्वाणं भणितमिदानी पुननिर्वाण स्य फलमनन्तसुखं कथयतीति पातनिकायस्यार्थ मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयतिः-अइसयं आसंसाराद्देवेन्द्रादिसुखेभ्योऽप्यपूर्वाद्भुतपरमालादरूपत्वादतिशयस्वरूपं, आवसमुत्थं रागादिविकल्परहितस्वशुद्धामसंवित्तिसमुत्पन्नत्वादात्म समुत्थं, विसबातीवं निविषयपरमात्मतत्त्वप्रतिपक्षभुतपंचन्द्रियविषयातीतत्वाद्विषयातीतं, अणोवर्म निरूपमपरमानन्दै कलक्षणत्वेनोपमारहितत्वादनुपम, अणतं अनन्तागामिकाले विनामाभावादप्रमितत्वाद्वाऽनन्तं, अन्यच्छिष्णं च असातोदयाभावानिरन्तरत्वादविच्छिन्नं च सुहं एवमुक्तविशेषणविशिष्टं सुखं भवति । केषाम् ! सुद्धा वओगप्प. सिद्धाण वीतरागपरमसामायिक शब्दवाच्यशुद्धोपयोगेन प्रसिद्धा उत्पना येऽहत्सिद्धास्तषामिति । अत्रेदमेव सुखमुपादेयत्वेन निरन्तरं भावनीयमिति भावार्थः ।।१३॥ उत्थानिका-आगे आचार्य शुभोपयोग और अशुभोपयोग दोनों को निश्चय नय से त्यागने योग्य जान करके शुद्धोपयोग के अधिकार को प्रारम्भ करते हुए तथा शुद्ध आत्मा की भावना को स्वीकार करते हुए अपने स्वभाव में रहने के इच्छुक जीत्र का उत्साह बढ़ाने के लिये शुद्धोपयोग का फल प्रकाश करते हैं अथवा दूसरी पातनिका या सूचना यह है कि यद्यपि आगे आचार्य शुद्धोपयोग का फल ज्ञान और सुख संक्षेप या विस्तार से कहेंगे तथापि यहाँ भी इस पीठिका में सूचित करते हैं अथवा तीसरी पातनिका यह है कि पहले शुद्धोपयोग का फल निर्वाण बताया था अब यहां निर्वाण का फल अनंत मुख होता है ऐसा कहते हैं। इस तरह तीन पातनिकाओं के भाव को मन में धरकर आचार्य आगे का सूत्र कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ—(सुद्ध वओगप्पसिद्धाणं) शुद्धोपयोग में प्रसिद्धों को अर्थात वीतराग परम सामायिक शब्द से कहने योग्य शुद्धोपयोग के द्वारा जो अरहंत और सिद्ध हो गए हैं उन परमात्माओं को (अइसयं) अतिशयरूप अर्थात् अनादि काल के संसार में चले आए इन्द्रादि के सुखों से भी अपूर्व अद्भुत परम आल्हाद रूप से होने से आश्चर्यकारी, (आदसमुत्थं) आत्मा से उत्पन्न अर्थात् रागद्वेषादि विकल्प रहित अपने शुद्धात्मा के अनुभव से पैदा होने वाला, (बिसयातीदं) विषयों से शून्य अर्थात् इन्द्रिय विषय रहित परमात्मतत्व के विरोधी पांच इन्द्रियों के विषयों से रहित, (अणोवमं) उपमा-रहित अर्थात् दृष्टांत
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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