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________________ पवयणसारो ] [ २७३ अस्तित्वभूत aथ्य की वृत्ति स्वरूप होने से, 'सत्' से अविशिष्ट, द्रव्यविधायक ( द्रव्य का रचयिता ) गुण ही है । इस प्रकार सत्ता और द्रव्य का गुण गुणी संबंध है ॥ १०६ ॥ पर्यनि अथ सत्ता गुणो भवति द्रव्यं च गुणी भवतीति प्रतिपादयति- जो खलु दध्वसहाओ परिणामो यः खलु स्फुटं द्रव्यस्य स्वभावभूतः परिणामः पंचेन्द्रियविषयानुभवरूपमनोव्यापारोत्पन्नसमस्त मनोरथरूपविकल्पजालाभावे सति यश्चिदानन्देकानुभूतिरूपः स्वस्थभावस्तस्योत्पादः, पूर्वोक्तविकल्पजालविनाशो व्ययः, तदुभयाधारभूतं जीवत्वं प्रोन्यमित्युक्तलक्षणोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकजीवद्रव्यस्य स्वभावभूतो योऽसौ परिणामः सो गुणो स गुणो भवति स परिणाम: 1 कथम्भूतः सन्गुणो भवति ? सदविसिको सतोऽस्तित्वादविशिष्टोऽभिन्नस्तदुत्पादादित्रयं तिष्ठत्यस्तित्वं चैकं तिष्ठत्यस्तित्वेन सह कथमभिन्नो भवतीतिनेत् । "उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्" इति वचनात् । एवं सति सत्तेव गुणो भवतीत्यर्थः । इति गुणव्याख्यानं गतम् । सदवट्ठिवं सहावे दत्त सदवस्थित स्वभावे प्रयमिति द्रव्यं परमात्मद्रव्यं किं कर्तृ ? सदिति । केन ? अभेदनयेन । कथम्भूतं ? मत् अवस्थितं । व ? उत्पादव्यय श्रीव्यात्मकस्वभावे जिणोवदेतोयं अयं जिनोपदेश इति "सदवदिदं सहात्रे दव्वं दब्दस्स जो हु परिणामो" इत्यादिपूर्वसूत्रे यदुक्तं तदेवेदं व्याख्यानं गुणकथनं पुनरधिकमिति तात्पर्यम् । यथेदं जीवद्रव्ये गुणगुणिनोर्व्याख्यानं कृतं तथा सर्वद्रव्येषु ज्ञातव्यमिति ।। १०६ ।। · उत्थानिक — आगे कहते है कि सत्ता गुण है और द्रव्य गुणी है। अन्वय सहित विशेषार्थ - ( खलु ) निश्चय से ( जो दव्वसहाओ परिणामो) जो द्रव्य का स्वभावमयी उत्पाद व्यय धौव्य रूप परिणाम है ( सो सदविसिट्ठी गुणो ) सो सत्ता से अभिन्न गुण है। (सहावे अवट्ठियं दधति सत् ) जो अस्तित्त्व स्वभाव में तिष्ठता है, वह द्रव्य है ( जिणो-बदेसोयं) ऐसा श्री जिनेन्द्र का उपदेश है । जब आत्मा में पंचेंद्रिय के विषयों के अनुभव रूप मन के व्यापार से होने वाले सब मनोरम रूप विकल्पजालों का अमाय हो जाता है, तब चिदानंद मात्र अनुभूति रूप जो आत्मा में ठहरा हुआ भाव है उसका उत्पाद होता है और पूर्व में कहे विकल्पजाल का नाश सो व्यय है, तथा इस उत्पाद और व्यय दोनों का आधार रूप अपना प्रौध्य है। इस तरह त्रयलक्षण वाले उत्पाद व्यय धौव्य स्वरूप जीव द्रव्य का कोई स्वभावभूत परिणाम है, वही सत्ता से अभिन्न गुण है । जीव में उत्पादादि तीन परिणमन है सो ही सत्गुण है जैसा कहा है "उत्पादव्यध्रौव्ययुक्तं सत्" । ऐसा पर यह सिद्ध हुआ कि सत्ता ही द्रव्य का गुण है । इस तरह सत्ता गुण का व्याख्यान गया। परमात्मा द्रश्य अभेदनय से अपने उत्पाद व्यय धौव्य रूप स्वभाव में तिष्ठा संत है, ऐसा श्री जिनेन्द्र का उपदेश है । "सदवट्ठिदं सहावे दव्यं वयस्स जो हु
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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