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________________ २६० ] [ पदयणसारो (१) [ध्रुवं असत् भवति] निश्चित असत् होगा, [तत् कथं द्रव्यं] (जो असत् होगा) बह द्रव्य कैसे हो सकता है ? (अर्थात् नहीं हो सकता) [पुनः वा] अथवा [यदि असत् न हो) तो (२) [अन्यत् भवति ] वह सत्ता से अन्य [पृथक् ] . होगा ? (सो भी कैसे हो सकता है ?) [तस्मात् ] इसलिये [द्रव्यं स्वयं] द्रव्य स्वयं ही [सत्ता] सत्ता रूप है। टीका–पवि द्रव्य स्वरूप से ही सत् न हो तो उसकी दो मति यह होंगी कि वह (१) असत् होगा, अथवा (२) सत्ता से पृथक होगा। उनमें से यदि असत् होगा तो, प्रौव्य के असम्भव होने से स्वयं को स्थिर न रखता हुआ द्रव्य ही लोप हो जायगा, और (२) यदि सत्ता से पृथक् होगा तो सत्ता के बिना भी अपनी सत्ता रखता हुआ, इतने (द्रव्य की सत्ता रखने) मात्र प्रयोजन वाली सत्ता का लोप कर देगा। स्वरूप से ही सत् होता हुआ (१) धौथ्य के सद्भाव के कारण स्वयं को स्थिर रखता हुआ, द्रव्य उदित होता है, (अर्थात् सिद्ध होता है), और (२) ससा से पृथक् रहकर (द्रव्य) स्वयं को स्थिर (विद्यमान) रखता हुआ, इतने ही मात्र प्रयोजन वाली सत्ता को उदित (सिद्ध) करता है। इसलिये द्रव्य स्वयं ही सत्त्व (सत्ता) रूप से स्वीकार करना चाहिये। क्योंकि भाव और भाववान् (द्रव्य) का अपृथक्त्व द्वारा अन्यत्व है (प्रदेश भेद न होते हुये संज्ञा-संख्या लक्षण आदि द्वारा अन्यत्व है ॥१०॥ तात्पर्यवृति अथ सत्ताद्रव्ययोरभेदविषये पुनरपि प्रकारान्तरेण युक्ति दर्शयति, ण हदि जवि सहन्वं परमचैतन्यप्रकाशरूपेण स्वरूपेण स्वरूपसत्तास्तित्वगुणेन यदि चेत् सन्न भवति । कि कर्तृ? परमात्मद्रव्यं तदा असद्धवं होदि असदविद्यमानं भवति ध्रुवं निश्चितं । अविद्यमानं सन् तं कह दम्वं तत्परमात्मद्रव्यं कथं भवति ? किन्तु नैव । स च प्रत्यक्षविरोधः । कस्मान् ? स्व. संवेदनज्ञानेन गम्यमानत्वात् । अथाविचारितरमणीयन्यायेन सत्तागृणाभावेप्यस्तीति चेत् तत्र विचार्यतेयदि केवलज्ञानदर्शनगुणाविनाभुतस्वकीयस्वरूपास्तित्वात्पृथग्भुता तिष्ठति तदा स्वरूपास्तित्वं नास्ति स्वरूपास्तित्वाभावे द्रव्यमपि नास्ति । अथवा स्वकीयस्वरूपास्तित्वात्संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेगि प्रदेशरूपेणाभिन्नं तिष्ठति तदा संमतमेव । अत्राबसरे सौगतमतानुसारी कश्चिदाह--सिद्धपर्यायसत्तारूपेण शुद्धात्मद्रव्यमुपचारेणास्ति, न च मुख्यवृत्त्येति, । परिहारमाह-सिद्धपर्यायोपादानकारणभूतपरमात्मद्रव्याभावे सिद्धपर्यायसत्तव न संभवति । वृक्षाभाबे फलमिव । अत्र प्रस्तावे नैयायिकमतानुसारी कश्चिदाह- हववि पुणो अण्णं वा तत्परमात्मद्रव्यं भवति पुनः किन्तु सत्तायाः सकाशादन्यद्भिन्नं भवति पश्चात्सत्तासमवायात्सद्भवति । आचार्याः परिहारमाहुः सत्तासमवायात्पूर्व द्रव्यं सदसद्वा? यदि सत्तदा सत्तासमवायो वृथा पूर्वमेवास्तित्वं तिष्ठति, अथासत्तहि खपुष्पवदविद्यमानद्रव्येण सह कथं सत्तासमवायं
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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