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________________ पत्रयणसारो ] [ १२३ एवमष्टाभिः स्थलद्वात्रिंशद्गाथास्तदनन्तरं नमस्कारगाथा चेति समुदायेन त्रयस्त्रिशत्सूत्रशनिप्रपंच-नामा तृतीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः । _अथ सुखत्रपञ्चाभिधानान्तराधिकारेऽष्टादश गाया भवन्ति । अत्र पञ्चस्थलानि तेषु प्रथमस्थले “अत्थि अमुत्तं” इत्याद्यधिकारगाथासूत्रमेकं तदनन्तरमतीन्द्रियज्ञान मुख्यत्वेन "जं छो" इत्यादि सूत्रमेकं अथेन्द्रियज्ञानमुख्यत्वेन "जीवों सयं अमुत्तो" इत्यादि गाथाचतुष्टयं अथानन्तरमिन्द्रियसुखप्रतिपादनरूपेण गाथाष्टकं तत्रास्यष्टकमध्ये प्रथमत इन्द्रियसुखस्य दुःखत्वस्थापनार्थ "मणुआ सु" इत्यादि गाथाद्वयं, अथ मुक्तात्मनां देहाभावेपि सुखमस्तीति ज्ञापनार्थ देहः सुखकारणं न भवतीति कथनरूपेण "पय्या इट्ठे विसये" इत्यादि सूत्रद्वयं तदनन्तरमिन्द्रियविषया अपि सुखकारणं न भवन्तीति कथने "तिमिरहरा" इत्यादि गाथाद्वयं, अतोपि सर्वज्ञनमस्कार मुख्यत्वेन "तेजोदिदि" इत्यादि गाथाद्वयम् । एवं पञ्चमस्थले अन्तरस्थल चतुष्टयं भवतीति सुखप्रपञ्चाधिकारे समुदायपातनिका ।। उत्थानिका- आगे ज्ञान प्रपंच के व्याख्यान के पीछे ज्ञान के आधार सर्वज्ञ भगवान को नमस्कार करते हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ -- जैसे (देवासुरमणुअरायसम्बंधी ) कल्पवासी, मवनत्रिक तथा मनुष्यों के इन्द्रों सहित (भत्तो) भक्तिमान ( उयजुतो ) तथा उद्यमवंत ( लोगों ) यह लोक ( तस्स माई ) उस सर्वज्ञ को नमस्कार ( पिच्च) सदा (करेदि ) करता है ( तहावि) से ही (अहं) मैं ग्रन्थकर्त्ता श्री कुन्दकुन्दाचार्य (तं) उस सर्वज्ञ को नमस्कार करता हूँ । भाव यह है कि जैसे देवेन्द्र व चक्रवर्ती आविक अनन्त और अक्षय सुख आदि गुणों के स्थान सर्वज्ञ के स्वरूप को नमस्कार करते हैं जैसे मैं भी उस पद का अभिलाषी होकर परमभक्ति से नमस्कार करता हूँ ।।५२०११ इस तरह आठ स्थलों के द्वारा बत्तीस गाथाओं से और उसके पीछे एक नमस्कार गाथा ऐसे तेतीस गाथाओं से ज्ञान प्रपंच नाम का तीसरा अंतर अधिकार पूर्ण हुआ। आगे सुख प्रपंच नाम के अधिकार में अठारह गाथाएं हैं जिसमें पांच स्थल हैं, उनमें से प्रथम स्थल में "अत्थि अमुक्त' इत्यादि अधिकार गाथा सूत्र एक है, उसके पीछे अतीन्द्रिय ज्ञान की मुख्यता से 'जं पेच्छो' इत्यादि सूत्र एक है। फिर इन्द्रियजनितज्ञान की मुख्यता से 'जीवो सयं अमुक्तो' इत्यादि गाथाएं चार हैं फिर अभवनय से केवलज्ञान ही सुख है ऐसा कहते हुए गाथाएं ४ हैं । फिर इन्द्रिय-सुख का कथन करते हुए गाथाएं आठ हैं । इनमें भी पहले इंद्रियसुख का रूप स्थापित करने के लिये 'मणुआसुरा' इत्यादि गाथाएं दो हैं । फिर मुक्त आत्मा के देह न होने पर भी सुख है इस बात को बताने के लिये देह सुख का कारण नहीं है, इसे जनाते हुए "पय्या इट्ठे विसये" इत्यादि सूत्र दो हैं। फिर इन्द्रियों के विषय इस गाधा की टीका श्री अमृतचन्द्रसूरि ने नहीं की है । *
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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