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________________ १२२ ] । पबयणसारो उत्थानिका--आगे पहले जो यह कहा था कि पदार्थों का ज्ञान होते हुए भी राग द्वेष मोह का अभाव होने से केवलज्ञानियों को बन्ध नहीं होता है, उस ही अर्थ को दूसरी तरह से दृढ़ करते हुए ज्ञान प्रपंच का संकोच करते हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ- (आदा) आत्मा अर्थात् मुक्त स्वरूप केवलज्ञानी या सिद्ध भगवान की आत्मा (ते जाणण्णवि) उन जेय पदार्थों को अपने आत्मा से भिन्न रूप जानते हुए भी (तेसु अट्ठे सु) उन ज्ञेय पदार्थों के स्वरूप में (ण यि परिणमदि) न तो परिणमन करता है अर्थात जैसे अपने आत्मप्रदेशों के द्वारा समतारस से पूर्ण भाव के साथ परिणमन कर रहा है वैसा जेय पदार्थों के स्वरूप नहीं परिणमन करता है अर्थात् आप अन्य पदार्थ रूप नहीं हो जाता है । (ण गेण्हदि) और न उनको ग्रहण करता है अर्थात् जैसे वह आत्मा अनन्तज्ञान आदि अनन्त चतुष्टय रूप अपने आत्मा के स्वभाव को आत्मा के स्वभाव रूप से ग्रहण करता है वैसे वह जेय पदार्थों के स्वभाव को ग्रहण नहीं करता है। (णेव उप्पज्जवि) और न वह उन रूप पैदा होता है अर्थात् जैसे वह विकार रहित परमानंदमयी एक सुखरूप अपनी ही सिद्ध पर्याय करके उत्पन्न होता है वैसा यह शुद्ध आत्मा ज्ञेय पदार्थों के स्वभाव में पंदा नहीं होता है। (सेण) इस कारण से (अबंधगो) कर्मों का बंध नहीं करने वाला (पण्णत्तो) कहा गया है। भाव यह है कि रागद्वेष रहित ज्ञान बंध का कारण नहीं होता है, ऐसा जानकर शुद्ध आत्मा का प्राप्ति रूप है लक्षण जिसका ऐसा जो मोक्ष उससे उल्टा जो नरक आदि के दुःखों को कारणभूत कर्म बंध की अवस्था, जिस बंध अवस्था के कारण इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाले एक देश ज्ञान उन सर्व को त्याग कर सर्व प्रकार निर्मल ज्ञान ओ कर्म बंध का कारण नहीं है उसका बीजमूत जो विकाररहितस्वसंबेवनज्ञान या स्वानुभव उसमें ही भावना करनी योग्य है, ऐसा अभिप्राय है ॥५२॥ अथ ज्ञानप्रपञ्चव्याख्यानानन्तरं ज्ञानाधारसर्वज्ञं नमस्करोति -. तस्स गमाई लोगो देवासुरमणुअरायसंबंधो। मत्तो करेषि णिचं उवजुत्तो तं तहाधि अहं ॥५२-१॥ करेवि करोति । स क: ? लोगो लोकः । कथंभूतः ? देवासुरमणुरायसंबंधो देवासुरमनुष्यराजसंबन्धः । पुनरपि कथंभूतः ? भत्तो भक्तः । णिच्चं नित्यं सर्वकालं । पुनरपि किविशिष्टः ? उवजुत्तो उपयुक्त उद्यतः । इत्थम्भूतो लोक; कां करोति ? णमाइंसमस्यां नमस्क्रियां। कस्य ? तस्स तस्य पूर्वोक्तसर्वज्ञस्य । तं तहावि अहं तं सर्वज्ञ तथा तेनैव प्रकारेणाहमपि ग्रन्थको नमस्करोमोति । अयमश्रार्थ -- यथा देवेन्द्रचक्नवादयोऽनन्ताक्षयसुखादिगुणास्पदं सर्वज्ञस्वरूपं नमस्कुर्वन्ति, तथैवाहमपि तत्पदाभिलाषी परमभक्त्या प्रणमामि । ५२-१॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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