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________________ पवयणसारी ] [ १७६ तबसंजमप्पसिद्धो समस्तरागादिपरभावेच्छात्यागेन स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं तपः, बहिरंगेन्द्रियप्राणसंयमबलेन स्व युद्धात्मनि संयमनात्समरसीभावेन परिणमनं संयमः, ताभ्यां प्रसिद्धो जातस्तप.संयमप्रसिद्धः सुद्धो क्षुधाद्यष्टादशदोषरहितः सम्गापवरामग्गकरो स्वर्ग: प्रसिद्धः केवलज्ञानद्यनन्तचतुष्टयलणणोऽपवर्गों मोक्षस्तयोर्मागं करोत्युपदिशति स्वर्गापवर्गमार्गकर: अमरासुरिंदमहिवो तत्पदाभिलाषिभिरमरासुरेन्द्र महितः पूजितोऽमगसुरेन्द्रमहितः देवो सो स एवं मुणविशिष्टोऽहंन् देवो भवति । लोयसिहरत्थो स एव भगवान् लोकायशिखरस्थः सन् सिद्धो भवतीति जिनसिद्धस्वरूपज्ञातव्यम्। उत्थानिका-आगे शुद्धोषयोग के अभाव में जिस तरतुद के जिन व सिद्ध स्वरूप को यह नहीं प्राप्त करता है उसको कहते हैं-- ___अन्वय सहित विशेषार्थ-(सो देवो) वह देव (तवसंजमापसिद्धो) सर्व रागादि परमावों की इच्छा के त्याग रूप अपने स्वरूप में दीप्तमान होना ऐसा जो तप तथा बाहरी इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम के बल से अपने शुद्धात्मा में स्थिर होकर समतारस के भाव से परिणमना जो संयम इन दोनों से सिद्ध हुआ है, (सुद्धो) क्षुधा आदि अठारह वर्षों से रहित शुद्ध वीतराग है, (सग्गापवयममाकरो) स्वर्ग तथा केवलज्ञान आदि अनंत चतुष्टय लक्षण रूप मोक्ष इन दोनों के मार्ग का उपदेश करने वाला है, (अमरासुरिदमहिवो) उसही पद के इच्छुक स्वर्ग के अथवा भवनत्रिक के इन्द्रों द्वारा पूजनीय है, तथा (लोयसिहत्थो) लोक के अग्न शिखर पर विराजित है, ऐसा जिन सिद्ध का स्वरूप जानना योग्य है ॥७६१॥ तात्पर्यवसि अब तमित्थंभूतं निर्दोषिपरमात्मानं ये श्रद्दधति मन्यन्ते तेऽक्षयसुखं लभन्त इति प्रज्ञापयति-- तं देवदेवदेवं अदिवरवसहं गुरू तिलोयस्स। पणमंति जे मणुस्सा ते सोक्खं अक्खयं जंति ॥७६-२॥ तं देवदेवदेवं देवदेवाः सौधर्मेन्द्रप्रभृतयस्तेषां देव आराध्यो देवदेवस्त देवदेवदेव, जविवरवसह जितेन्द्रियत्वेन निजशुद्धात्मनि यत्लपरास्ते यतयस्तेषां वरा गणधरदेवादयस्तेभ्योऽपि वृषभः प्रधानो यतिवरवृषभस्तं यतिवरवृषभं, गुरू तिलोयस्स अनन्तज्ञानादिगुरुगुणस्त्रलोक्यस्यापि गुरुस्तं त्रिलोकगुरु पणमति जे अणुस्सा तमित्यंभूतं भगवन्तं ये मनुष्यादयो द्रव्यभावनमस्काराभ्यां प्रणमन्त्याराधयन्ति ते सोक्खं अक्खयं जंति ते तदाराधनाफलेन परम्परयाउक्षयानन्तुसौख्यं यान्ति लभन्त इति सूत्रार्थः ॥७६-२॥ उत्थानिका--आगे सूचना करते हैं कि जो कोई इस प्रकार निर्दोष परमात्मा को मानते हैं, अपनी श्रद्धा में लाते हैं वे ही अविनाशी आत्मीक सुख को पाते हैं __अन्वय सहित विशेपार्थ-(जे मणुस्सा) जो कोई भव्य मनुष्य आदिक (तं देवदेवदेवं) उस महादेव को जो देवों के देव सौधर्म इन्द्र आदि का भी देव है अर्थात् उनके द्वारा आराधना के योग्य है, (जदियरयसह) इन्द्रियों के विषयों के जीतकर अपने शुद्ध आत्मा में
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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