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________________ पवयणसारो ] [ ५६७ संयतः स्यात् । असंयतस्य च यथोदितात्मत्त्वप्रतीतिरूपं श्रद्धानं यथोदितात्मतत्त्वानुभूतिरूपं ज्ञानं था कि कुर्यात् । ततः संयमशून्यात् श्रद्धानात् ज्ञनाद्वा नास्ति सिद्धिः। अत आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानामयोगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटेतैव ॥२३७॥ भूमिका-अब, यह सिद्ध करते हैं कि-आगमज्ञान-तत्वार्थश्रद्धान और संयतत्व की अयुगपतता वाले के मोक्षमार्गत्व घटित नहीं होता अन्वयार्थ---- आगमेन] आगम से [यदि अपि] यदि [अर्थेष श्रद्धानं नास्ति] पदार्थों का श्रद्धान न हो तो, [न हि सिद्धयति] सिद्धि (मुक्ति) नहीं होती, [अर्थान् श्रद्धधानः] पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भी [असंयतः वा] यदि असंयत हो तो [न निर्वाति ] निवाण को प्राप्त नहीं होता।। ___टोका-आगमजनित ज्ञान से, यदि श्रद्धानशून्य (श्रद्धान उत्पन्न न हुआ) हो तो सिद्धि नहीं होती, और जो आगमज्ञान के अधिनाभावी श्रद्धान से भी, यदि संयमशून्य हो तो सिद्धि नहीं होती। यथा--आगम बल से सकल पदार्थों की विस्पष्ट तर्फणा करता हुआ भी यदि जीव, सकल पदार्थों के ज्ञेयाकारों के साथ मिलित होने वाला विशद एक ज्ञान वह ज्ञान जिसका आकार है, ऐसे आत्मा को उस प्रकार से प्रप्तीत नहीं करता तो यथोक्त मात्मा के श्रद्धान से शून्य होने के कारण जो यथोक्त आत्मा का अनुभव नहीं करता (नहीं जानता) ऐसा वह ज्ञेयनिमग्न ज्ञान-विमूढ जीव कैसे ज्ञानी होगा ? (नहीं होगा, वह अज्ञानी हो होगा।) और ज्ञेयद्योतक तक होने पर भी आगम अज्ञानी को क्या करेगा ? आगम ज्ञेयों का प्रकाशक होने पर भी वह अज्ञानी के लिये क्या कर सकता है ? इसलिये श्रद्धानशन्य वाले को आगम से सिद्धि नहीं होती। (जो श्रद्धापूर्वक आगम को नहीं पढ़ते उनको आगम से सिद्धि नहीं होती) और सफल पदार्थों के ज्ञेयाकारों के साथ मिलित होता हुआ एक ज्ञान जिसका आकार है, ऐसे आत्मा का श्रद्धान करता हुआ भी अनुभव करता (जानता) हुआ भी यदि जीव अपने में ही संयमित होकर नहीं रहता, तो वह संयत कैसे होगा ? क्योंकि उसकी चित्ति (चैतन्य की परिणति) अनादि मोह राग द्वेष की वासना से जनित पर-द्रव्य में भ्रमणता के कारण स्व-इच्छा-चारिणी हो रही है, और उस चिदवत्ति के ऐसी चिद्वत्ति का अभाव है जो अपने में ही रहने से वासना (विषय कषाय) रहित निष्कंप और एक तत्त्व में लीन हो । (अर्थात् जिसकी चित्ति स्व-इच्छा-चारणी हो और एकाग्रता रूप ध्यान से रहित हो यह असंयत है) यथोक्त आत्मतत्व को प्रतीति रूप श्रद्धान या यथोक्त आत्मतत्व का अनुभूतिरूप ज्ञान असंयत को क्या करेगा ? इसलिये
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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