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________________ ७२ ] [ पवयणसारो यदि खलु निखिलात्मीयज्ञेयाकारसमर्पणद्वारेणावतीर्णाः सर्वेऽर्था न प्रतिभान्ति ज्ञाने तदा तन्न सर्वगतमभ्युपगम्येत । अभ्युपगम्येत या सर्वगतम् । तहि साक्षात् संवेदनमुकुरुन्दभूमिकावतीणंप्रतिबिम्बस्थानीयस्वीयस्वीयसंवेद्याकारकारणानि, परम्परया प्रतिबिम्बस्थानीपसंवेद्याकारकारणानीति कथं न ज्ञानस्थायिनोऽर्था निश्चीयन्ते ॥३१॥ भूमिका-अब, ज्ञान पदार्थ में इस प्रकार रहते हैं, यह व्यक्त करते हैं: अन्वयार्थ- [यदि] जो [ते अर्थाः] वे पदार्थ [ज्ञाने न सन्ति (अपनी परिछित्ति के आकारों के समर्पण द्वारा, दर्पण में बिम्ब की तरह) केवलज्ञान में नहीं हैं तो [ज्ञानं] ज्ञान [सर्वगतं] सर्वगत [न भवति] नहीं हो सकता [वा] और [सर्वगतं ज्ञानं] सर्वगत ज्ञान माना गया है, तो [ज्ञानस्थिताः अर्थाः] पदार्थ (अपने ज्ञेयाकारों के परिच्छित्ति-समर्पण द्वारा) ज्ञान में स्थित [कथं न भवन्ति ] कैसे नही हैं (किन्तु हैं ही। टीका-जो वास्तव में समस्त अपने ज्ञेयाकारों के समर्पण द्वारा से अवतरित सभी पदार्थ ज्ञान में प्रतिभासित नहीं होते हैं, तो वह (ज्ञान) सर्वगत नहीं माना जा सकता और (ज्ञान तो) सर्वगत माना गया है । तो फिर साक्षात ज्ञान दर्पण भूमिका में अवतरित बिम्ब की भांति अपने-अपने क्षेयाकारों के कारण (होने से) और परम्परा से प्रतिबिम्ब के समान क्षेयाकारों के समान होने से कसे पार्थ ज्ञान में स्थित निश्चित न किये जाए (अवश्य ही ज्ञान में पदार्थ स्थित निश्चित होते हैं) ॥३१॥ तात्पर्यवृत्ति अय पूर्वसूत्रेण भणितं ज्ञानमर्थेषु वर्तते व्यवहारेणात्र पुनरर्था ज्ञाने वर्तन्त इत्युपदिशन्ति, जइ यदि चेत् ते अट्ठा ण संति ते पदार्थाः स्वकीय परिच्छित्याकारसमपंणद्वारेणादर्श बिम्बवन्न सन्ति यदि चेत् । क्व ? गाणे केवलज्ञाने णाणं ण होइ सम्बयं तदा ज्ञानं सर्वगतं न भवति । सव्यगर्य वा णाणं व्यवहारेण सर्वगतं ज्ञानं सम्मतं चेद्भवतां कहं ण गाणहिया अठ्ठा हि व्यवहारनयेन स्वकीयज्ञेयाकारपरिच्छित्तिसमर्पणद्वारेण ज्ञान स्थिता अर्याः कथं न भवन्ति ? किन्तु भवन्त्येव । अत्रायमभिप्राय:-यत एव व्यवहारेण ज्ञेयपरिच्छित्याकारग्रहणद्वारेण ज्ञान सदंगत भण्यते, तस्मादेव ज्ञेयपरिछित्त्याकारसमर्पणद्वारेण पदार्था अपि व्यवहारेण ज्ञानगता भण्यन्त इति ।।३।। उत्थानिका--आगे पूर्व सूत्र से यह बात कही गई कि व्यवहार से ज्ञान पदार्थों में बर्तन करता है अब यह उपदेश करते हैं कि पदार्थ ज्ञान में वर्तते हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ-(जवि) यदि (ते अठ्ठा) वे पदार्थ (गाणे) केवलज्ञान में (ण संति) नहीं हों अर्थात् जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब झलकता है इस तरह पदार्थ अपने नानाकार को समर्पण करने के द्वारा ज्ञान में न मलकते हों तो (णाणं) केवलज्ञान (सम्वगय)
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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