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[ पवयणसारी
अन्वयार्थ- [यस्य] जिस पदार्थ के [प्रदेशाः] बहुत प्रदेश [प्रदेशमा त्रं वा] अथवा एक प्रदेश भी [तत्त्वतः] परमार्थतः हिदुम् न संलि] बात नहीं होते, [ ] उस पदार्थ को [शून्यं जानीहि] शून्य जानो [अस्तित्वात् अर्थान्तरभूतत् ] क्योंकि वह अस्तित्व से अर्थान्तरभूत (अन्य) है । __टीका-प्रथम तो, अस्तित्व उत्पाद, व्यय, और प्रौव्य की ऐवयरूप प्रवृत्ति है । सूत्र में कही हुई वह (वृत्ति) प्रदेश के बिना ही काल के होनी सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रदेश के अभाव में वृत्तिमान का अभाव होता है। (और) वह तो शून्य ही है, क्योंकि अस्तित्व नामक वृत्ति से अर्थान्तरभूत (अन्य) है । और (यदि यहाँ यह तकं किया जाय 'मात्र समय पर्यायरू पयत्ति ही माननी चाहिये, वृत्तिमान् कालाणु पदार्थ की क्या आवश्यकता है ? तो उसका समाधान इस प्रकार है)—मात्र वृत्ति ही काल नहीं हो सकती, क्योंकि वृत्तिमान के बिना वृत्ति नहीं हो सकती । यदि (यह कहा आय कि वृत्तिमान के बिना भी) वृत्ति हो सकती है तो, (प्रश्न होता है कि वृत्ति तो उत्पादच्ययधौन्य की एकतास्वरूप होनी चाहिये,) अकेली वृत्ति उत्पाद व्यय ध्रौव्य की एकतारूप कैसे हो सकती है ? यदि यह कहा जाय कि-'अनादि-अनन्त, अनन्तर (परस्पर अन्तर हुये बिना एक के बाद एक प्रवर्तमान) अनेक अंशों के कारण एकात्मकता (एक स्वरूपता) होती है इसलिये, पूर्व-पूर्व अंशों का उत्पाद होता है तथा एकात्मकतारूप प्रौव्य रहता है, इस प्रकार मात्र (अकेलो) वृत्ति भी उत्पाद-व्यय-धान्य की एकतास्वरूप हो सकती है ऐसा नहीं है। (क्योंकि उस अकेली वृत्ति में तो) जिस अंश में नाश है और जिस अंश में उत्पाद है वे दो अंश एक साय प्रवृत्त नहीं होते, इसलिये (उत्पाद और व्यय का) ऐक्य कहां से हो सकता है ? (अर्थात नहीं हो सकता)। तथा नष्ट अंश के सर्वथा अस्त होने से और उत्पन्न होने वाला अंश अपने स्वरूप को प्राप्त होने से (अर्थात उत्पन्न हआ है, इसलिये दोनों भिन्न-भिन्न हये, फिर) नाश और उत्पाद की एकता में प्रवर्तमान प्रौव्य कहां से हो सकता है (अर्थात् नहीं हो सकता)। ऐसा होने पर विलक्षणता (उत्पादन्ययात्रौव्यता) नष्ट हो जाती है, क्षणभंगुरता (बौद्धसम्मत क्षणविनाश) उल्लसित हो उठता है, नित्य द्रव्य अस्त हो जाता है, और क्षणविध्वंसी भाव उत्पन्न होते हैं। इसलिये तस्वविप्लव के (वस्तु-स्वरूप को व्यवस्था बिगड़ जाने के) भय से अवश्य ही वृत्ति का आश्रयभूत कोई वृत्तिमान ढढना स्वीकार करना योग्य है । यह तो प्रदेश ही है (अर्थात् वह वृत्तिमान सप्रदेश ही होता है), क्योंकि अप्रदेश के अन्धय तथा व्यतिरेक का अनुविधायित्व असिद्ध है। (जो अप्रदेश होता है । वह अन्यय