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________________ पययणसारो ] [ ४५३ कारण, (३) अतीन्द्रिय महापदार्थत्व के कारण, (४) अचलता के कारण, और ( ५ ) निरालम्बत्व के कारण है । इनमें से ( १-२ ) जो ज्ञान को हो अपने में धारण करे रखता है और जो स्वयं दर्शनभूत है ऐसे आत्मा के अतन्मय ( ज्ञान दर्शन रहित ) परद्रव्य से भिन्नत्व और स्वधर्म से अभिन्नत्व होने से, एकत्व है, ( ३ ) प्रतिनिश्चित स्पर्श-रस- गन्ध-वर्णरूप गुण तथा शब्दरूप पर्याय को ग्रहण करने वाली अनेक इन्द्रियों का अतिक्रम ( उल्लंघन ) करके समस्त स्पर्श-रस-गंध वर्णरूप गुणों और शब्द रूप पर्याय को ग्रहण करने वाले एक सत् महापवार्थं के ( आत्मा के ), इन्द्रियात्मक परद्रव्य से भिन्नत्व और स्पर्शादिक के ग्रहण स्वरूप ( ज्ञानस्वरूप ) स्वधर्म से अभिन्नत्व होने के कारण, एकत्व है, (४) क्षण-विनाश रूप से प्रवर्तमान ज्ञेय पर्यायों को ( प्रतिक्षण नष्ट होने वाली ज्ञातथ्य पर्यायों को ) ग्रहण करने और छोड़ने का अभाव होने से जो अचल है ऐसे आत्मा के ज्ञेयपर्याय स्वरूप परद्रव्य से भिन्नत्व और तन्निमित्तक (ज्ञेयों के निमित्त से होने वाले) ज्ञान स्वरूप स्वधर्म से अभिन्नत्व होने के कारण, एक है, (५) और नित्यरूप से प्रवर्तमान ( शाश्वत ) ज्ञेयद्रव्यों के आलम्बन का अभाव होने से जो निरालम्ब है ऐसे आत्मा के ज्ञेय रूप परद्रव्यों से भिन्नत्व और तन्निमित्तक ज्ञान स्वरूप स्वधर्म से अभिन्नत्व होने के कारण, एकत्व है । इस प्रकार आत्मा शुद्ध है, क्योंकि चिन्मात्र शुद्धनय उतना ही मात्र निरूपण स्वरूप है ( अर्थात् चैतन्यमात्र को ग्रहण करने वाली शुद्धमय आत्मा को मात्र शुद्ध हो निरूपित करती है 1 ) और यही (एक शुद्धात्मा ही ) ध्रुवत्व के कारण उपलब्ध करने योग्य है। किसी पथिक के शरीर के अंगों के साथ संसर्ग में आने वाली मार्ग के वृक्षों की अनेक छाया के समान अन्य अध्यय ( पदार्थों) से क्या प्रयोजन है ? ( अर्थात् कुछ नहीं ) || १६२ || तात्पर्यवृत्ति अथ ध्रुवत्वाच्छुद्धात्मानमेव भावयेऽहमिति विचारयति — "भण्णे" इत्यादिपदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते मण्णे - मन्ये ध्यायामि सर्वप्रकारोपादेयत्वेन भावये । स कः ? अहं कर्त्ता । कं कर्मतापन ? अप्पणं सहजपरमाह्लादकलक्षणनिजात्मानम् । किं विशिष्टम् ? सुखं रागादिसमस्त विभावरहितम् । पुनरपि किं विशिष्टम् ? धुवं टोत्कीर्णज्ञायकेकस्वभावत्वेन ध्रुवमविनश्वरम् । पुनरपि कथंभूतम् ? एवं णाणप्पाणं दंसणभूदं एवं बहुविधपूर्वोक्तप्रकारेणाखण्डेकज्ञानदर्शनात्मकम् । पुनश्च किं रूपम् ? अइंदियं अतीन्द्रियं मूर्त्तविनश्वरानेकेन्द्रियरहितस्वेनामूर्त्ताविनश्व रेकातीन्द्रियस्वभावम् । पुनश्च कीदृशम् ? महत्यं मोक्षलक्षणमहापुरुषार्थसाधकत्वामहार्थम् । पुनरपि किस्वभावम् ? अचलं अतिचपलचञ्चल मनोवाक्कायव्यापाररहितत्वेन स्वस्वरूपे
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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