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________________ २५८ ] [ पवयणसारो और पीतभाव के द्वारा अपनी सत्ता का अनुभव करता है, इसलिये हरितभाव और पीतभाव के साथ अभिन्न सत्ता वाला होने से एक ही वस्तु, अन्य वस्तु नहीं, इसी प्रकार द्रव्य स्वयं ही पूर्व अवस्था में अवस्थित गुण में से उत्तर अवस्था में अवस्थित गुणरूप परिणत होता हुआ, पूर्व और उत्तर अवस्था में अवस्थित उन गुणों के द्वारा अपनी सत्ता का अनुभव करता है, इसलिये पूर्व लोर उनर 7 में शामिशत गुणों के साथ अभिन्न सत्ता वाला होने से एक ही द्रव्य है, द्रव्यान्तर नहीं है (अन्य द्रव्य नहीं है)। जंसे पीतभाव से उत्पन्न होता है, हरितभाव से नष्ट होता है, और आम्रफल रूप से स्थिर रहता है, इसलिए आम्रफल एक वस्तु को पर्याय के द्वारा उत्पादध्यय-प्रौव्य रूप है, उसी प्रकार उत्तर अवस्था में अवस्थित गुण से उत्पन्न, पूर्व अवस्था में भवस्थित गुण से नष्ट और द्रध्यत्व गुण से स्थिर होने से द्रव्य पर्याय के द्वारा उत्पाद-व्ययधोव्य रूप है ॥१०॥ तात्पर्यवृत्ति अथ द्रव्यस्योत्पादव्ययध्रौव्याणिगुणपर्यायमुख्यत्वेन प्रतिपादयति-- परिणमदि सयं वध्वं परिणमति स्वयं स्वयमेवोपादानकारणमूतं जीवद्रव्यं कर्तृ । कं परिणमति? गुणदो य गुणंतरं निरुपरागस्वसंवेदनज्ञानगुणात्केवलज्ञानोत्पत्तिवीजभूतात्सकाशात्सकलविमलकेवलज्ञानगुणान्तरं । कथंभूतं सत्परिणमति ? सदविसिठं स्वकीयस्वरूपत्वाच्चिद्रास्तित्वादविशिष्टभिन्नं । तम्हा गुणपज्जाया भणिया पुण दव्यमेवत्ति तस्मात्कारणान्न केवलं पूर्वसूत्रोदिताः द्रव्यपर्यायाः द्रव्यं भवन्ति, गुणरूपपर्याया गुणपर्याया भण्यन्ते तेपि द्रव्यमेव भवन्ति । अथवा संसारिजीबद्रव्यं मतिस्मृत्यादिविभावगुणं त्यक्त्वा श्रुतज्ञानादिविभावगुणान्तरं परिणमति, पुद्गलद्रव्यं वा पूर्वोक्तशुक्लवर्णादिगुणं त्यक्वा रक्तादिगुणान्तरं परिणमति हरितगुणं त्यक्त्वा पाण्डुरगुणान्तरमाम्रफलमिवेति भावार्थः ।।१०४।। एवं स्वभावविभावरूपा द्रव्यपर्याया गुणपर्यायाश्च नविभागेन द्रव्यलक्षणं भवन्ति इतिकथनमुख्यतया गाथाद्वयेन चतुर्थस्थलं गतम् । उत्थानिका-आगे द्रव्य के उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वरूप को गुण पर्याय की मुख्यता से बताते हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ— (सदविसिट्ठ) अपनी सत्ता से अभिन्न (दव्यं) द्रव्य (गुणवो) एक गुण से (गुणंतरं) अन्य गुणरूप (सयं) स्वयं आप ही (परिणमदि) परिणमन कर जाता है। (तम्हा) इस कारण से (य पुण) ही तब (गुणपज्जाया) गणों को पर्याय (दवमेवेत्ति) द्रव्य ही हैं ऐसी (भणिया) कही जाती हैं। एक जीव द्रव्य अपने चैतन्य स्वरूप से अभिन्न रहकर अपने ही उपादानकारण से आप ही केवलज्ञान की उत्पत्ति का बोज जो वीतराग स्वसंवेवन गुणरूप अवस्था उसको
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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