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________________ ५४ ] [ पक्यणसारो द्वितीया चेति णवि परिण मदि" इत्यादि शायाद्वयम् । एवं ज्ञानप्रपञ्चाभिधानतृतीयान्तराधिकारे स्त्रिशद्गाथाभिः स्थलाष्टकेन समुदायपातनिका ।तद्यथा अयातीन्द्रियज्ञानारिणतत्वातकिर. सर्वस्या भवतीनि अतिपादयति । पहचक्खा सम्वश्वपजाया सर्वद्रव्यपर्यायाः प्रत्यक्षा भवन्ति । कस्य ? केवलिन: । कि कुर्वतः ? परिणमको परिणममानस्य खलु स्फुटम् । किम् ? जाणं अनन्तपदार्थपरिच्छित्तिसमर्थ केवलज्ञानम् । तर्हि किं क्रमेण जानाति ? सो व ते विजाणवि जग्गहपुरवाहि किरियाहिं स च भगवान्नैव तान् जानात्यवग्रहपूर्वाभिः क्रियाभिः, किन्तु युगपदित्यर्थः। इतो विस्तर:--अनाद्यनन्तमहेतुकं चिदानन्द कस्वभावं निजशुद्धात्मानमुपादेयं कृत्वा केवलज्ञानोत्पत्तेर्बीजभूतेनागम भाषया शुक्लध्यानसंज्ञेन रागादिविकल्पजालरहितस्वसंवेदन ज्ञानेन यदायमात्मा परिणमति, तदा स्वसंवेदनज्ञानफलभूत केवलज्ञानपरिच्छित्याकारपरिणतस्य तस्मिन्नेव क्षणे क्रमप्रवृत्तक्षायोपशमिकज्ञानाभावादक्रमसमाक्रान्तसमस्तद्रव्य क्षेत्रकालभावतया सर्वद्रव्य गुणपर्याया अस्यात्मनः प्रत्यक्षा भवन्तीत्यभिप्राय: ॥२१॥ उत्थानिका--आगे ज्ञान प्रपंच नाम के अन्तर अधिकार में तेतीस गाथायें हैं, उनमें आठ स्थल हैं जिनके आदि में केवलज्ञान सर्व प्रत्यक्ष होता है, ऐसा कहते हुए 'परिणमदो खलु इत्यादि गाथाएँ दो हैं फिर आत्मा और ज्ञान के निश्चय से असंख्यात प्रदेश होने पर भी व्यवहार से सर्वव्यापी बना है इत्यादि कथन की मुख्यता से "आदा णाणपमाणं" इत्यादि गाथाएं पांच हैं। उसके पीछे ज्ञान और ज्ञेय पदार्थों का एक-दूसरे में गमन के निषेध की मुख्यता से "णाणी णाणसहावो" इत्यादि गाथाएँ पाँच हैं। आगे निश्चय और व्यवहार से केवलो के प्रतिपादन आदि मुख्यता करके "जोहि सुदेण" इत्यादि चार सूत्र हैं । आगे वर्तमान काल के ज्ञान में तीन काल को पर्यायों के जानपने को कहने आदि की मुख्यता से "तक्कालिगेव सवे" इत्यादि पाँच सूत्र हैं । आगे केवलज्ञान बन्ध का कारण नहीं है, न रागादि विकल्परहित छिद्मस्थ का ज्ञान बन्ध का कारण है किन्तु रागादिक वन्ध के कारण हैं इत्यादि निरूपण की मुख्यता से "परिणमदि य" इत्यदि पाँच सूत्र हैं। आगे केवलज्ञान सर्वज्ञान है इसी को सर्वज्ञपना करके कहते हैं इत्यदि व्याख्यान की मुख्यता से “जं तत्कालियमिदरं" इत्यादि पाँच गाथाएँ हैं । आगे ज्ञान प्रपंच को संकोच करने की मुख्यता से पहली गाथा है तथा नमस्कार को कहते हुए दूसरी तरह "णवि परिणमदि" इत्यादि दो गाथाएँ हैं। इस तरह ज्ञान प्रपंच नाम के तीसरे अन्तर अधिकार में तेतीस गाथाओं में आठ स्थलों से समुदाय पातनिका पूर्ण हुई । आगे कहते हैं कि केवलज्ञानी अतीन्द्रिय ज्ञान में परिणमन करते हैं इस कारण से उनको सर्व पदार्थ प्रत्यक्ष होते हैं। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(स्खलु) वास्तव में (णाणं) अनन्त पदार्थों को जानने में समर्थ केवलज्ञान को (परिणमदो) परिणमन करते हुए केवलो अरहंत भगवान के
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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