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________________ ववयणसारो ] [ ५३ तदुपरि प्रबिकसत्केवलज्ञानोपयोगीभूय विपरिणमते, ततोऽस्याक्रमसमा कान्सस मस्तद्रव्यक्षेत्र कालभावतया 'समक्षसंवेदनालम्बनभूताः सर्वद्रव्यपर्यायाः प्रत्यक्षा एव भवन्ति ॥ २१ ॥ भूमिका – अब, ज्ञान के स्वरूप के विस्तार को ( गाथा २१ से ५२ तक) और सुख के विस्तारको (गाथा ४३ से ६८ तक) कम से प्रवर्तमान दो अधिकारों द्वारा कहते हैं । उनमें से पहले अधिकार को प्रारम्भ करते हुए, केवली के अतीन्द्रियज्ञान (रूप) परिणत होने से सब प्रत्यक्ष होता है यह प्रगट करते हैं अन्वयार्थ - [ज्ञानं परिणममानस्य केवलिनः ] ( अनन्त पदार्थों के जानने में समर्थ ऐसे ) केवलज्ञान रूप से परिणत हुए केवली भगवान् के [सर्वद्रव्यपर्यायाः ] सब द्रव्य पर्यायें [ खलू] वास्तव में [ प्रत्यक्षा: ] प्रत्यक्ष हैं । [ स ] वह (केवली भगवान्) [तान् ] उन सब ( द्रव्य - पर्यायों) को [ अवग्रहपूर्वाभिः क्रियाभिः ] अवग्रह है पूर्व में जिनके ऐसे अवग्रह, ईहा अवाय रूप क्रियाओं द्वारा [ नॅव ] नहीं [विजानाति ] जानते हैं ( किन्तु युगपत् जानते हैं) । टीका — क्योंकि, वास्तव में, इन्द्रियों को आलम्बन करके अवग्रह, ईहा, अवाय पूर्वक क्रम से केवली नहीं जानते हैं ( किन्तु ) समस्त आवरण के नाश के समय में हो, अनादि अनन्त, अहेतुक और असाधारणभूत ज्ञान स्वभाव को ही कारणपने से ग्रहण करके, उसके ऊपर प्रगट होने वाले केवलज्ञानोपयोगी होकर स्वयमेव परिणमते हैं । इस कारण से उस ( केवली ) के, समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अक्रमिक ( युगपत् ) ग्रहण होने से ( जानने से ) प्रत्यक्ष ज्ञान की आलम्बनभूत समस्त द्रव्य पर्याय प्रत्यक्ष ही हैं । ( भवन्ति क्रिया का कर्त्ता समस्त द्रव्य पर्यायें हैं 1) तात्पर्यवृत्ति उपोद्घातः - अथ ज्ञानप्रपञ्चाभिधानान्तराधिकारे त्रयस्त्रिशद्गाथा भवन्ति । तत्राष्ट स्थलानि । तेष्वादी केवलज्ञानस्य सर्वं प्रत्यक्षं भवतीति कथनमुख्यत्वेन 'परिणमवो बलु' इत्यादिगाथाद्वयम्, अध्यात्मज्ञानयोनिश्चयेनासंख्यात प्रदेशत्वेपि व्यवहारेण सर्वगतत्वं भवतीत्यादिकथन मुख्यत्वेन "आदा णाणपमाणं" इत्यादिगाथा पञ्चकम्, ततः परं ज्ञानज्ञेययोः परस्परगमननिराकरण मुख्यतया "णाणी णाणसहावो" इत्यादिगाथापञ्चकम् अथ निश्चयव्यवहारकेवलिप्रतिपादनादिमुख्यत्वेन "जो हि सुवेण' इत्यादिसूत्र चतुष्टयं, अथ वर्तमानज्ञाने कालत्रयपर्यायपरिच्छित्तिकथनादिरूपेण "तक्का लिगेव सवे" इत्यादिसूत्रपञ्चकम् अथ केवलज्ञानं बन्धकारणं न भवति रागादिविकल्परहितं छद्मस्थज्ञानमपि । किन्तु रागोदयो बन्धकारणमित्यादिनिरूपण मुख्यतया "परिणमदि णेयं" इत्यादिसूत्रपञ्चकम्, अथ केवलज्ञानं सर्वज्ञानं सर्वज्ञत्वेन प्रतिपादयतीत्या दिव्याख्यानमुख्यत्वेन "जं कालियमिवरं" इत्यादिगाथापञ्चकम्, अथ ज्ञानप्रपंचोपसंहारमुख्यत्वेन प्रथमगाथा, नमस्कारकथनेन १. 'समस्त' इति पाठान्तरम् ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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