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________________ [ पवय णसारो ३७४ ] दर्शनोपयोगं निजात्मानं ध्यायति कम्मेहि सो ण रज्जदि कर्मभिश्चिच्चमत्कारात्मनः प्रतिबन्धकैनिावरणादिकर्मभिः स न रज्यते न बध्यते । किह तं पाणा अणुधरंति कर्मबन्धाभावे सति तं पुरुषं प्राणाः करिः कथमनुचरन्ति कथमाश्रयन्ति ? न कथमपीति । ततो ज्ञायते कषायेन्द्रिय विजय एव पञ्चेन्द्रियादिप्राणानां विनाशकारणमिति॥१५१।। "एवं सपदेसेहि सम्मम्गो" इत्यादि गाथाष्टकेन सामान्यभेदभावनाधिकारः समाप्तः । उत्थानिका---आगे इन्द्रिय आदि प्राणों के अंतरंग नाश के कारण को प्रगट करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ--(जो) जो कोई (इंदियादिविजइ) इंद्रिय आदि का जीतने वाला (भवीय) होकर (उवओगं) उपयोगमयो (अप्पगं) आत्मा को (मादि) ध्याता है। (सो) सो जीव (कम्मेहि) कर्मों से (ण रज्जदि) लिप्त नहीं होता है अर्थात् नहीं बंधसा है (किह) तब किस तरह (पाणा) प्राण (तं) उस जीव को (अणुचरंति) आश्रय करेंगे? जो कोई भव्य जीव अतीन्द्रिय आत्मा से उत्पन्न सुखरूपी अमत में संतोष के बल से जितेन्द्रिय होकर तथा कषाय-रहित निर्मल आत्मानुभव के बल से कषाय को जीतने से पंचेन्द्रिय को जीतकर केवलज्ञान और केवलदर्शन उपयोगमयो अपनी ही आत्मा को ध्याता है यह चतन्य चमत्कारमयी आत्मा के गुणों के विघ्न करने वाले ज्ञानावरण आदि कर्मों से नहीं बंधता है। कर्मबन्ध के न होने पर ये इन्द्रियादि द्रव्यप्राण किस तरह उस जीव का माश्रय कर सकते हैं ? अर्थात् किसी भी तरह आश्रय नहीं करेंगे। इसी से जाना जाता है कि कषाय और इंद्रिय के विषयों का जीतना ही पंचेन्द्रिय आवि प्राणों के विनाश का कारण है ॥१५॥ इस तरह "एवं सपदेसेहिं सम्भगो" इत्यादि आठ गाथाओं से सामान्य भेद भावना का अधिकार समाप्त हुआ। तात्पर्यवृत्ति अथानन्तरमेकपञ्चाशद्गाथापर्यन्तं विशेषभेदभावनाधिकारः कथ्यते । तत्र विशेषान्तराधिकारचतुष्टयं भवति । तेषु चतुर्पु मध्ये शुभाशुपयोगत्रयमुख्यत्वेनैकादशगाथापर्यन्तं प्रथमविशेषान्तराधिकारः प्रारभ्यते । तत्र चत्वारि स्थलानि भवन्ति । तस्मिन्नादी नरादिपर्यायैः सह शुद्धात्मस्वरूपस्य पृथवत्वपरिज्ञानार्थं "अस्थित्तणिच्छिदस्स हि" इत्यादि यथाक्रमेण गाथात्रयम् । तदनन्तरं तेषां संयोगकारणं "अप्पा उवओगप्पा" इत्यादि गाथाद्वयम् । तदनन्तरं शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयसूचनमुख्यत्वेन "जो जाणादि जिणिदे' इत्यादि गाथात्रयम् । तदनन्तरं कायवाग्मनसां शुद्धात्मना सह भेदकथनरूपेण "णाहं देहो" इत्यादि गाथात्रयम् । एवमेकादशगाथाभिः प्रथमविशेषान्तराधिकारे सयुदायपातनिका।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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