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________________ २२६ ] [ पवयणसारो इस तरह सत्ता आदि तीन लक्षणों को रखने वाला है ( तं दन्त्र त्ति ) उसको द्रव्य ऐसा ( बुच्चति ) सर्वज्ञ भगवान् कहते हैं । यह द्रव्य उत्पाद व्यय श्रव्य तथा गुण पर्यायों के साथ लक्ष्य और लक्षण की अपेक्षा भेद रूप होने पर भी सत्ता के भेद को नहीं रखता है । जिसका लक्षण या स्वरूप कहा जाय वह लक्ष्य है और जो उसका विशेष स्वरूप है वह लक्षण हैं । तब यह द्रव्य क्या करता है ? अपने स्वरूप से ही उस विधपने को आलंबन करता है । इसका भाव यह है कि यह द्रव्य शुद्धात्मा की तरह उत्पाद व्यय ध्रौव्य स्वरूप तथा गुणपर्याय रूप परिणमन करता है । केवलज्ञान की उत्पत्ति के समय में शुद्ध आत्मा के स्वरूप ज्ञानमयो निश्चल अनुभवरूप कारणसमयसार रूप पर्याय का विनाश होते हुए शुद्धात्मा का लाभ या उसकी प्रगटता रूप कार्य- समयसार का उत्पाद या जन्म होता है और इन दोनों पर्यायों के आधार रूप परमात्म द्रव्य की अपेक्षा से ध्रुवपना या स्थिरपना रहता है तथा उस परमात्मा के अनंतज्ञानादि गुण होते हैं । गतिमागंणा से विपरीत सिद्ध गति व इन्द्रिय मार्गणा से विपरीत अतींद्रियपना आदि लक्षण को रखने वाली शुद्ध पर्यायें होती हैं अर्थात् वह परमात्म-द्रथ्य जैसे अपनी शुद्ध सत्ता से भिन्न नहीं है, एक है, पूर्व में कहे हुए उत्पाद व्यय श्रीव्य स्वभावों से तथा गुण पर्यायों से संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदि को अपेक्षा से भेद रूप होने पर भी उनके साथ सत्ता आदि के भेद को नहीं रखता है, स्वरूप से ही उसी प्रकार पने को धारण करता है अर्थात् उत्पाद-व्यय-धीव्य रूप तथा गुण पर्याय स्वरूप रूप परिणमन करता है तैसे ही सर्व द्रव्य अपने-अपने यथायोग्य उत्पाद व्यय धौव्यपने से तथा गुण पर्यायों के साथ यद्यपि संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदि की अपेक्षा भेद रखते हैं तथापि सत्ता स्वरूप से भेद नहीं रखते हैं, स्वभाव से ही उन प्रकार-रूपपने को आलम्बन करते हैं, अर्थात् उत्पाद व्यय श्रव्य स्वरूप या गुणपर्याय स्वरूप परिणमत करते हैं । अथवा जैसे वस्त्र जब स्वच्छ किया जाता है तब अपनी निर्मल पर्याय से पैदा होता है, मलिन पर्याय से नष्ट होता है और इन दोनों के आधार रूप वस्त्र स्वभाव से ध्रुव या अविनाशी है तसे ही अपने ही श्वेताविगुण तथा मलिन यथा स्वच्छ पर्यायों के साथ संज्ञा आदि की अपेक्षा भेट होने पर भी सत्ता रूप से भेद नहीं रखता है, तब क्या करता है ? स्वरूप से ही उत्पाद आदि रूप से परिणमन करता है, जैसे ही सर्व ब्रव्य परिणमन करते हैं यह अभिप्राय है ||३५|| भावार्थ - - इस गाथा में आचार्य ने द्रव्य के तीन लक्षण बताए हैं। सत्रूप, उत्पाद व्यय धौव्य रूप और गुण पर्याय रूप । अभेद की अपेक्षा द्रश्य जैसे अपने सत् स्वभाव से
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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