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________________ २८२ ] [ परयणसारो ___टीका-पर्याय, पर्यायभूत स्वव्यतिरेकट्यक्ति के काल में ही सत् (विद्यमान) होने से, उससे अन्य कालों में असत् (अविद्यमान) ही हैं। पर्यायों का द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्ति के साथ गुंथा हुआ (एकरूपता से युक्त) जो क्रमानुपाती (क्रमानुसार) स्वकाल में उत्पाद होता है, उसमें, पर्यायभूत स्वव्यतिरेकव्यक्ति का पहले असत्व होने से, पर्याय अन्य हैं। इसलिये पर्यायों को अन्यता के द्वारा, पर्यायों के स्वरूप का कर्ता, करण और अधिकरण होने से पर्याय रे अनुगः नः त्यहा असत-उत्पाद निश्चित होता है । जैसेमनुष्य, देव या सिद्ध नहीं है, और देव, मनुष्य या सिद्ध नहीं है, ऐसा न होता हुआ अनन्य (बह का वही) कसे हो सकता है, कि जिससे अन्य हो न हो और जिससे जिसके मनुष्यादि पर्याय उत्पन्न होती हैं ऐसा जीव द्रव्य भी, जिसको कंकणादिक पर्याय उत्पन्न होती हैं ऐसे सुवर्ण को भांतिपद-पद पर (प्रति पर्याय पर) अन्य न हो ? (अर्थात् अन्य हो होगा) ॥११३॥ तात्पर्यवृत्ति अथ द्रव्यस्यासदृत्पादं पूर्वपर्यायादन्यत्वेन निश्चिनोति, मणुओ ण हववि देवो आकुलस्त्रोत्पादकमनुज: देवादिविभावपर्यायविलक्षणमनाकुलत्वरूपस्वभावपरिणतिलक्षणं परमात्मद्रव्यं यद्यपि निश्चयेन मनुष्यपर्याये देवपर्याये च समान तथापि मनुजो देवो न भवति । कस्मान् ? देवपर्यायकाले मनुष्यपर्यायस्यानुपलम्भात् । वेवो या माणुसो व सिद्धो वा देवो वा मनुष्यो न भवति स्वात्मोपलब्धिरूपसिद्धपर्यायो वा न भवति । कस्मात् ? पर्यायाणां परस्परं भिन्नकालत्वात्, सुवर्णद्रव्ये कुण्डलादिपर्यायाणामिव । एवं अहोज्जमाणो एवमभवन्सन् अणपणभावं कहं लहदि अनन्यभावमेकरवं कथं लभते? न कथमपि । तत एतावदायाति असहभावनिबद्धोत्पादः पूर्वपर्यायादभिन्नो भवतीति ।।११३।। उस्थानिका-आगे द्रव्य के असत् उत्पाद को पूर्व पर्याय से भिन्न निश्चय करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(मणुओ) मनुष्य (देवो ण होदि) देव नहीं होता है। (वा देवो) अथवा देव (माणुसो व सिद्धो या) मनुष्य या सिद्ध नहीं होता है। (एवं अहोज्ज माणो) ऐसा नहीं होने पर भी (अणण्णभावं कह लहदि) एकपने को कैसे प्राप्त हो सकता है ? आकुलता-जनक देव मनुष्यादि पर्यायों से विलक्षण तथा निराकुल-स्वरूप अपने स्वभाव में परिणमन रूप लक्षण को धरने वाला परमात्मा द्रव्य यद्यपि निश्चय से मनुष्य पर्याय में तथा देव पर्याय में समान है तथापि मनुष्य देव नहीं होता है क्योंकि देव पर्याय के काल में मनुष्य पर्याय की प्राप्ति नहीं है, मनुष्य पर्याय के काल में देव पर्याय की तथा निज-आत्म-उपलब्धिरूप सिद्ध पर्याय की प्राप्ति नहीं है, क्योंकि पर्यायों का परस्पर भिन्न भिन्न काल है । जैसे सुवर्ण द्रव्य में कुण्डल कंकण आदि पर्यायों का भिन्न-भिन्न
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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