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________________ पवयणसारो । [ ५४५ तात्पर्यवृत्ति अथ युक्ताहारत्वं विस्तरेणाख्याति : एक्कं खलु तं भत्तं एककाल एव खलु हि स्फुटं स भक्त आहारो युक्ताहार: कस्मादेक भक्तेनैव निर्विकल्पसमाधिसहकारिकारणभूतगरीरस्थितिसम्भवात् । स च काथंभूतः ? अप्परिपुण्णोदरं यथाशक्त्या न्यूनोदरः जहालद्धं यथालब्धो न च स्वेच्छालब्धः चरणं भिक्खेण भिक्षाचरणेनैव लब्धो न च स्वपाकेन दिवा दिवंव न च रात्रौ । ण रसावेक्खं रसापेक्षो न भवति किन्तु सरसविरसादी समचित्तः ण मधुर्मसं अमधुमासः अमधुमांस इत्युपलक्षणेन आचारशास्त्रकथितपिण्डशुद्धिक्रमेण समस्तायोग्याहाररहित इति। एतावता किमुक्तं भवति ? एवंविशिष्टविशेषणयुक्त एवाहारस्तपोधनानां युक्ताहारः । कस्मादिति चेत् ? चिदानन्दकलक्षणनिश्चयप्राणरक्षणभूता रागादिविकल्पोपाधिरहिता या तु निश्चयनयेनाहिंसा तत्साधकरूपा बहिरङ्गपरजीवप्राणव्यपरोपण निवृत्तिरूपा द्रव्याहिंसा च सा द्विविधापि तत्र युक्ताहारे सम्भवति । यस्तु तद्विपरीतः स युक्ताहारो न भवति । कस्मादिति चेत् ? तद्विलक्षणभूताया द्रव्यरूपाया हिंसाया सद्भावादिति ॥२२६।। उत्थानिका-आगे योग्य आहार का स्वरूप और भी विस्तार से कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(खलु) वास्तव में (तं मत्तं एक्क) उस भोजन को एक ही बार (अप्पडिपुण्णोवर) पूर्ण पेट न भरकर ऊनोदर (जहालद्धं) जैसा मिल गया वैसा (भिक्खण चरण) भिक्षा के द्वारा लेना सो योग्य आहार होता है (रसावक्खं ण) उसमें से रसों की इच्छा नहीं होना चाहिये (मधुमंसं ण) तथा मधु व मांस से रहित होना चाहिये । साधु महाराज दिन में एक बार ही भोजन लेते हैं वहीं उनका योग्य आहार है, इससे ही विकल्प-रहित समाधि में सहकारी कारणरूप शरीर की स्थिति रहनी सम्भव है। एक बार भी वे शक्ति अनुसार भूख से कम लेते हैं, जैसा मिल गया वैसा लेते हैं उसके लिये चाह नहीं करते। भिक्षाद्वारा ही लेते हैं, अपने आप नहीं बनाते । दिन में लेते हैं, रात्रि में कभी नहीं लेते। भोजन सरस है या रस-रहित है, ऐसा विकल्प न करके समभाव रखते हैं । मधु-मांस रहित व उपलक्षण से आचार शास्त्र में कही हुई पिण्डशुद्धि के क्रम से समस्त अयोग्य आहार को वर्जन करते हुए लेते हैं । ___ इससे यह बात कही गई है कि इन गुणों सहित जो आहार है वही तपस्वियों फा योग्य आहार है, क्योंकि योग्य आहार लेने से ही दो प्रकार की हिंसा का त्याग हो सकता है। चिदानन्द एक लक्षणरूप निश्चयप्राण की रक्षाभूत, रागादि विकल्पों की उपाधि न होने देना सो निश्चय अहिंसा है तथा इसको साधनरूप बाहर में परजीवों के प्राणों को कष्ट देने से निवृत्तिरूप रहना सो द्रव्य अहिंसा है, दोनों ही अहिंसा को प्रति
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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