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________________ ४४२ ] [ पवयणसारो टीका-जैसे नवमेघजल के भूमिसंयोगरूप परिणाम के समय अन्य पुद्गलपरिणाम स्वयमेव वैचित्र्य को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार आत्मा के शुभाशुभ परिणाम के समय कर्मयुद्गलपरिणाम वास्तव में स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त होते हैं। यह इस प्रकार है कि--जैसे, जब नया मेघजल भूमिसंयोगरूप परिणमित होता है तब अन्य पुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त हरियाली कुकुरमुत्ता (छत्ता), और इन्द्रगोप (चातुर्मास में उत्पन्न लाल कोड़ा) आदि रूप परिणमित होता है, इसी प्रकार जब यह आत्मा राग द्वेष के वशीभूत होता हुआ शुभाशुभभावरूप परिणमित होता है तब अन्य योगदारों से प्रविष्ट होते हुये, कर्मपुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त ज्ञानावरणादि भावरूप परिणमित होते हैं। इससे (यह निश्चित हुआ कि) कर्मों की विचित्रता (विविधता) का होना पुद्गल. स्वभावकृत है, किन्तु आत्मकृत नहीं ॥१७॥ तात्पर्यवृत्ति अथ यथा द्रव्यकर्माणि निश्चयेन स्वयमेवोत्पद्यन्ते तथा ज्ञानाबरणादिविचित्रभेदरूपेणापि स्वयमेव परिणमन्तीति कथयति परिणमदि जदा अप्पा परिणमति यदात्मा समस्तणुभाशुभपरद्रव्यविषये परमोपेक्षालक्षणं शुद्धोपयोगपरिणाम मुक्त्वा यदायमात्मा परिणमांत 1 यत्र । सुम्हि असुहाम्ह शुभंऽशुभे या परिणामे । कथंभूतः सन् ? रागवोसजुदो रागद्वेयुक्तः परिणत इत्यर्थः । तं पविसबि कम्मरयं तदाकाले तत्प्रसिद्ध कर्मरजः प्रविशति । कः कृत्वा ? गाणावरणाविभावेहि भूमेमधजलसंयोगे सति यथाऽन्ये पुद्गलाः स्वयमेव हरितपल्लवादिभावैः परिणमन्ति तथा स्वयमेव नानाभेदपरिणतैमू लोत्तरप्रकृतिरूपज्ञानावरणादिभाव: पर्यायैरिति । ततो ज्ञायते यथा ज्ञानावरणादिकर्मणामुत्पत्तिः स्वयंकृता तथा मूलोत्तरप्रकृतिरूपवैचित्र्यमपि, न च जीवकृतमिति ॥१८७।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जैसे द्रथ्यकर्म निश्चयनय से स्वयं ही उत्पन्न होते हैं वैसे वे स्वयं ही ज्ञानावरणादि विचित्र रूप से परिणमन करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ—(जदा) जब (रागदोसजुदो) रागद्वेष सहित (अप्पा) आत्मा (सुहम्मि असुहम्मि) शुभ या अशुभ भाव में (परिणमदि) परिणमन करता है तब (कम्मरयं) कमरूपी रज स्वयं (णाणावरणादिभावेहि) ज्ञानावरणादि को पर्यायों से (पविसदि) जीव में प्रवेश कर जाती है । जब यह रागद्वेष में परिणमता हुआ आत्मा सर्व शुभ तथा अशु म द्रव्य में परम उपेक्षा के लक्षण रूप शुद्धोपयोग परिणाम को छोड़कर शुभ परिणाम में या अशुभ परिणाम में परिणमन करता है उसी समय में, जैसे भूमि के पुद्गल मेघ जल के संयोग को पाकर आप ही हरी घास आदि अवस्था में परिणमन करते हैं, इसी तरह
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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