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________________ ४६८ ] [ पवयणसारो तात्पर्यवृत्ति अथायमेव निजशुद्धात्मोपलब्धिलक्षण मोक्षमार्गे नान्य इति विशेषेण समर्थयति - जादा जाता उत्पन्नः । कथंभूताः ? सिद्धा सिद्धाः सिद्धपरमेष्ठिनो मुक्तात्मान इत्यर्थः । के कर्त्तारः ? जिशा जिना : अनागारकेवलिनः । जिणिदा जिना: न केवलं जिना जिनेन्द्राश्च तीर्थकर परमदेवाः । कथंभूताः सन्तः एते सिद्धा जाताः ? मग्गं समुट्ठिदा निजपरमात्मतत्वानुभूतिलक्षणमार्ग मोक्षमार्ग समुत्थिा आश्रिताः । केन ? एवं पूर्वं बहुधा व्याख्यातक्रमेण । न केवलं जिना जिनेन्द्रा अनेन मार्गेण सिद्धा जाता: समणा सुखदुःखादिसमता भावनापरिणतात्मतत्त्वलक्षणा शेषा अचरमदेहश्रमणास्त्र । अत्र रमदेहानां कथं सिद्धत्वमिति चेत् ? "तवसिद्धे णयसिद्धे संजमसिद्धे चरितसिद्धे य । गाणमि दंसणम्मि य सिद्धे सिरसा णमस्सामि ॥" इति गाथाकथितक्रमेणैकदेशेन णमोत्यु तेसि नमोऽस्तु तेभ्यः । अनन्तज्ञानादिसिद्धगुणस्मरणरूपो भावनमस्कारोऽस्तु तस्स य णिव्वाणभागस्स तस्मै निविकारस्वाण निश्वक लयात्मक निर्वामाय च । ततोऽवधार्यते अयमेव मोक्षमार्गे नान्य इति ॥ १६६ ॥ उत्थानिका— आगे विशेष करके समर्थन करते हैं कि यह अपने शुद्धात्मा की प्राप्ति लक्षण ही मोक्षमार्ग है, अन्य कोई मार्ग नहीं है । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( एवं ) इस तरह पूर्व कहे प्रमाण (भग्गं समुट्ठिया) मोक्षमार्ग को प्राप्त होकर (समणा ) मुनि, ( जिणा ) सामान्यकेवली जिन, ( जिंगिदा ) तथा तीर्थंकरफेथली जिन, ( सिद्धा) सिद्ध परमात्मा ( जादा ) हुए (तसि) उन सबको (य) और तस्स णिवाणमग्गस्स) उस मोक्षमार्ग को (णमोत्थु ) नमस्कार हो । इस तरह बहुत प्रकार से पहले कहे हुए निज परमात्मतत्व के अनुभवमयी मोक्षमार्ग को आश्रय करने वाले जीव सुख दुःख आदि में समताभाव से परिणमन करने वाले तथा आत्मतत्व में लोन अनेक मुनि हुए जो तद्भव मोक्षगामी न थे तथा सामान्यकेवली जिन हुए व तीर्थंकर परमदेव हुए, ये सब सिद्ध परमात्मा हुए हैं। उन सबको तथा उस विकार रहित स्वसंवेदन लक्षण निश्चयरत्नत्रयमयी मोक्ष के मार्ग का हमारा अनन्तज्ञानादि सिद्ध गुणों का स्मरणरूप भाव नमस्कार हो । यहाँ अचरमशरीरी मुनियों को सिद्ध मानकर इसलिये नमस्कार किया है कि उन्होंने भी रत्नत्रय को सिद्धि को है । जैसा कहा है "लव सिद्धे णयसिद्धे संजमसिद्धे चरितसिद्धे य । णाणस्मि दंसणम्मि य सिद्धे सिरसा णर्मस्सामि " पाई है, संयम सिद्धि पाई है है कि यहो अर्थात् जिन्होंने तप में सिद्धि पाई है, नयों के स्वरूपज्ञान में सिद्धि में सिद्धि की है, चारित्र में सिद्धि पाई है तथा सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान में उन सबको में सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ। इससे निश्चय किया जाता मोक्ष का मार्ग है, अन्य कोई नहीं है ॥ १६६ ॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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