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________________ ४७८ [ पवयणसारो स्थले गाथात्रयम् । तदनन्तरं भावहिंसाद्रदयहिंसापरिहारार्थ 'अपयत्ना वा रिया' इत्यादि पञ्चमस्थले सुत्रषटकमित्येक्रविशतिगाथाभिः स्थलपञ्चकेन प्रथमान्तराधिकारे समुदायपातनिका । तद्यथा-अथासनभव्यजीवांश्चारित्रे प्रेरयति;-पडियाजदु प्रतिपद्यतां स्वीकरोतु किम् ? सामण्णं श्रामण्यं चारित्रम् । यदि किम् ? इच्छदि जदि दुक्खपरिमोक्खं यदि चेन् दुःखपरिमोक्षमिच्छति । स कः कर्ता ? परेषामात्मा । कथं प्रतिपद्यताम् ? एवं पूर्वोक्तप्रकारेण एस सुरासुरमणुसिव इत्यादि गाथापञ्चकेनपञ्चपरमेष्ठिनमस्कारं कृत्वा ममात्मना दु:खमोक्षाथिनान्य पूर्वोक्तभव्यर्वा यथा तच्चारित्रं प्रतिपन्नं तथा प्रतिपद्यताम् । कि कृत्वा पूर्व ? पणमिय प्रणम्य । कान् ? सिद्धे अजनापादुकादिसिद्धिविलक्षणस्वात्मोपलब्धिसिद्धिसमेतसिद्धान् । जिणवरवसहे सासादनादिक्षीणकषायान्ता एवदेशजिना उच्यन्ते शेषाश्चानागारकेवलिनो जिनवरा मण्यन्ते । तीर्थकर परमदेवाश्च जिनवरवृषभा इति तान् जिनवरवृषभान् । न केवल तान् प्रणम्य पुणो पूणो समणे चिच्चमत्कारमात्रनिजात्मसम्यकथाद्वानज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयरत्नत्रयाचरणप्रतिपादनसाधकल्त्रोद्यतान् श्रमणशब्दवाच्यानाचार्योपाध्यायसाधूश्च पुनः पुनः प्रणम्येति । किंच पूर्व ग्रम्थप्रारम्भकाले शाम्यमाश्रयामीति शिवकुमारमहाराजनामा प्रतिज्ञां करोतीति भणितम् । इदानीं तु महात्मना चारित्रं प्रतिपन्न मिति पूर्वापरविरोधः । परिहारमाड्-ग्रन्थप्रारम्भात्पूर्वमेव दीक्षा गृहोता तिष्ठति परं किन्तु ग्रन्थकरणब्याजेन क्वाप्यात्मानं भावनापरिणतं दर्शयति । क्वापि शिवकुमारमहाराज क्वाप्यन्यं भव्यजीव वा । तेन कारणनात्र ग्रन्थे पुरुषनियमो नास्ति कालनियमो नास्तीत्यभिप्राय: ।।२००-।। अब चारित्रतत्वदीपिका का ध्याख्या न किया जाता है। उत्थानिका-इस ग्रन्थ का जो कार्य था उसकी अपेक्षा विचार किया जाय तो ग्रंथ को समाप्ति दो खंडों में हो चुकी है, क्योंकि “उपसंपयामि सम्म" मैं साम्यभाव में प्राप्त होता है इस प्रतिज्ञा की समाप्ति हो चुकी है । तो भी यहां क्रम से ससाना गाथाओं तक चलिका रूप से चारित्र के अधिकार का व्याख्यान प्रारम्भ करते हैं। इसमें पहले उत्सर्ग रूप से चारित्र का संक्षेप कथन है उसके पीछे अपवाद रूप से उसी ही चारित्र का विस्तार से व्याख्यान है। इसके पीछे श्रमणपना अर्थात मोक्षमार्ग का व्याख्यान है, फिर शुभोपयोग का व्याख्यान है इस तरह चार अन्तर अधिकार हैं। इनमें से भी पहले अन्तर अधिकार में पांच स्थल हैं। “एवं पणमिय सिद्धे" इत्यादि सात गाथाओं तक दीक्षा के सम्मुख पुरुष का दीक्षा लेने के विधान को कहने की मुख्यता से प्रथम स्थल है । फिर "वद-समिर्दिदिय" इत्यादि मूलगुण को कहते हुए दूसरे स्थल में गाथाएं दो हैं। फिर गुरु की व्यवस्था बताने के लिये "लिंगग्गहणे' इत्यादि एक गाथा है। तैसे ही प्रायश्चित के कथन की मुख्यता से “पयदम्हि'' इत्यादि गाथाएं दो हैं इस तरह समुदाय से तीसरे स्थल में गाथाएं तीन हैं। आगे आधार आदि शास्त्र के कहे हुए कम से साधु का संक्षेप समाचार कहने के लिये "अधिवासे च वि" इत्यादि चौथे स्थल में गाथाएं तीन हैं। उसके पीछे भावहिंसा, द्रव्यहिंसा के त्याग के
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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