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________________ ३३४ । [ पवयणसारो और पुद्गल अप्रदेशी हैं इसलिये उनके वह संभव नहीं है, जीव समुद्धात को छोड़कर मान्यः लोक हे असंरयासने भागमान है, इसलिये उसके संभव नहीं है, लोक अलोक को सीमा अचलित होने से आकाश के यह संभव नहीं है, और विरुद्ध कार्य का हेतु होने से अधर्म के वह संभव नहीं है । काल और पुद्गल एक--प्रदेशी हैं, इसलिये वे लोक तक गमन में निमित्त नहीं हो सकते, जीव समुद्घात को छोड़कर अन्य काल में लोक के असंख्यातवें भाग में ही रहता है, इसलिये वह भी लोक तक गमन में निमित्त नहीं हो सकता, यदि आकाश गति में निमित्त हो तो जीव और पुद्गलों को गति अलोक में भी होने लगे, जिससे लोकालोक की मर्यादा हो न रहेगी। इसलिये गति-हेतुत्व आकाश का भी गुण नहीं है, अधमंद्रव्य तो गति से विरुद्ध-स्थिति कार्य में निमित्तभूत है, इसलिये यह भी गति में निमित्त नहीं हो सकता। इस प्रकार गतिहेतुत्वगुण धर्म नामक द्रव्य का अस्तित्व बतलाता है) ___ इसी प्रकार एक ही काल में स्थिति-परिणत समस्त जीव-पुद्गलों को लोक तक स्थिति का हेतुत्व अधर्म को ज्ञात कराता है, क्योंकि काल और पुदगल अप्रदेशी हैं, इसलिये उनके यह संभव नहीं है, जीव समुद्घात को छोड़कर अन्यत्र लोक के असंख्यातवें भाग मात्र है, इसलिये उसके यह संभव नहीं है, लोक और अलोक की सीमा अचलित होने से आकाश के वह संभव नहीं हैं और विरुद्ध कार्य का हेतु होने से धर्म के वह संभव नहीं है। इसी प्रकार (काल के अतिरिक्त) शेष समस्त द्रव्यों के, प्रत्येक पर्याय में समयवृत्ति का हेतत्व काल को ज्ञात कराता है, क्योंकि उनके, समयविशिष्टवृत्ति (समय समय परिणमन) कारणान्तर से साध्य होने से (अर्थात उनके समय से विशिष्ट परिणति अन्य कारण से होती है, इसलिये ) स्वतः उनके वह (समयवृत्ति-हेतुत्व) संभवित नहीं है । इसी प्रकार चैतन्य परिणाम जीव को ज्ञात कराता है, क्योंकि वह चेतन है, इसलिये शेष द्रव्यों के यह संभव नहीं है । इस प्रकार गुण-विशेष से द्रव्यविशेष जानना चाहिये ।।१३३-१३४॥ तात्पर्यवृत्ति अथाकाशाद्यमुर्त्तद्रव्याणां विशेषगुणान्प्रतिपादयति आगासस्सवगाहो आकाशस्याबगाहहेतुत्वं, धम्मपन्बस्स गमण हेदुत्तं धर्मद्रव्यस्य गमनहेतुत्वं धम्मेदरदम्बस्स दु गुणो पुणो ठाणकारणदा धर्मतरद्रव्यस्य तु पुनः स्थान कारणता गुणो भवतीति प्रथमगाथा गता। कालस्स वट्टणा कालस्य वर्तना स्याद्गुणः गुणोवओगोत्ति अप्पणो भणिदो ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयमित्यात्मनो गुणो भणितः । णेया संखेवादो गुणा हि मुत्तिष्पहीणाणं एवं संक्षेपादमुर्तद्रव्याणां गुणा ज्ञेया इति ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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