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________________ २० ] [ पवयणसारो अशुभ होता है, और जब वरी [शुद्धन] शुद्ध भाव से [परिणमति] परिणमन करता है [तदा] तव [शुद्धः भवति] स्वयं शुद्ध होता है [हि] क्योंकि वह [परिणामसद्भावः] परिणमन स्वभाव वाला है-उत्पाद व्यय-ध्रौव्य स्वरूप है। टीका-जब यह आत्मा शुभ या अशुभ राग भाव से परिणत होता है, तब जपा कुसुम या तमालपुष्प के लाल या काले रंगरूप परिणत स्फटिक की भांति परिणाम स्वभाव होता हुआ स्वयं शुभ या अशुभ होता है और जब यह शुद्ध अराग (वीतराग) भाव से परिणत होता हुआ शुद्ध होता है, तब शुद्ध अराग (वीतराग) स्फटिक की भांति परि. णाम स्वभाव होता हुआ शुद्ध होता है (उस समय आत्मा स्वयं ही शुद्ध होता है)। इस प्रकार जीव के शुभत्व, अशुभत्व और शुद्धत्व सिद्ध होते हैं । तात्पर्य यह है कि वह अपरिणमन स्वभाव कूटस्थ नहीं है ॥६॥ तात्पर्यवृत्तिअथ शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयेण परिणतो जीव: शुभाशुभशुद्धोपयोगस्वरूपो भवतीत्युपदिशतिजीयो परिणमवि जदा सुहेण अरु हेण ता जीव; कर्ता यदा परिणमति शुभेनाशुभेन वा परिणामेन सुहो असुहो हवदि तदा शुभेन शुभो भवति, अशुभेन वाऽशुभो भवति । सुद्धण तवा सुद्धो हि शुद्धेन यदा परिणमति तदा शुद्धो भवति, हि स्फुटम् । कथंभूतः सन् ? परिणामसभायो परिणामसभावः सन्निति । तद्यथा-यथा स्फटिकमणिविशेषों निर्मलोऽपि जपापुष्पादिरक्तकृष्णश्वेतोपाधिवशेन रक्तकृष्णश्वेतवों भवति, तथाऽयं जीवः स्वभावेन, शुद्धबुद्धकस्वरूपोऽपि व्यवहारेण गृहस्थापेक्षया यथासंभवं सरागसम्यक्त्वपूर्वकदानपूजादिशुभानुष्ठानेन, तपोधनानेक्षया मूलोत्तरगुणादिशुभानुष्ठानेन परिणत: शुभो ज्ञातव्य इति । मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगश्चप्रत्ययरूपाशुभोपयोगेनाशुभो विज्ञेयः । निश्चय रत्नत्रयात्मकशुद्धोपयोगेन परिणत: शुद्धो ज्ञातव्य इति । किद जीवस्यासंख्येयलोकमात्रपरिणामाः सिद्धान्ते मध्यमप्रतिपल्या मिथ्यादृष्ट्यादिचतुर्दशगुणस्थानरूपेण कथिताः। अत्र प्राभतशास्त्रे तान्येव गुणस्थानानि संक्षेपेपाशुभशुभशुद्धोपयोगरूपेण कषितानि । कमिति चेत्-मिथ्यात्वसासादमिश्रगुणस्थान त्रये तारतम्येनाशुभोपयोगः, तदनन्तरमसंयतसम्यग्दृष्टि देशविरतप्रमत्तसंयतगुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभोपयोगः, तदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीणकषायान्त गुणस्थानषट् के तारतम्येन शुद्धोपयोगः, तदनन्तरं सयोग्ययोगिजिनगुणस्थानद्वये शुद्धोपयोगफलमिति भावार्थः ॥६॥ _उत्थानिका—आगे यह उपदेश करते हैं कि शुभ, अशुभ तथा शुद्ध ऐसे तीन प्रकार के उपयोग से परिणमन करता हुआ आत्मा शुभ, अशुभ तथा शुद्ध उपयोग स्वरूप होता है। अन्वय सहित विशेषार्थ-(जवा) जय (परिणाम सम्भावो) परिणमन स्वभावधारी (जीयो) यह जीव (सुहेण) शुभ भाव से (वा असुहेण) अथवा अशुभ भाव से (परिणमवि) परिणमन करता है तब (सुही असुहो) शुभ परिणामों से शुभ तथा अशुभ
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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