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________________ ३५८ 1 [ पवयणसारी तात्पर्यवृत्ति अथ पूर्वोक्तप्रकारेण यथा वर्तमानसमये कालद्रध्यस्योत्पादच्ययध्रौव्यत्वं रथापितम् तथा सर्वसमयेष्वस्तीति निश्चिनोति एगम्हि संति समये संभवठिविणाससण्णिदा अछा एकस्मिन्समये सन्ति विद्यन्ते। के ? सम्भवस्थितिनाशसंज्ञिता अर्थाः धर्माः स्वभावा इति यावत् । कस्य सम्बन्धिनः ? समयस्स समयरूपपर्यायस्योत्पादकत्वात् समयः कालाणुस्तस्य सम्वकालं यद्येकस्मिन् वर्तमानसमये सर्वदा तथैव एस हि कालाणुसम्भावो एषः प्रत्यक्षीभूतो हि स्फुटमुत्पादव्ययध्रौव्यात्मककालाणुसद्भाव इति । तद्मथा-यथा पूर्वमेकसमयोत्पादप्रध्वंसाधारेणांगुलिद्रव्यादिदृष्टान्तेन वर्तमानसमये कालद्रव्यस्योत्पादव्ययध्रौव्यत्वं स्थापितं तथा सर्वसमयेषु ज्ञातव्यमिति । अत्र यद्यप्यतीतानन्तकाले दुर्लभाया: सर्वप्रकारोपादेयभूतायाः सिद्धगतेः काललब्धिरूपेण बहिरङ्गसहकारी भवति कालस्तथापि निश्चयनयेन निजशुद्धात्मतत्त्वसम्यकश्रद्धानाज्ञानानुष्ठानसमस्तफरद्रव्येच्छानिरोधलक्षणतपश्चरणरूपा या तु निश्चयचतुर्विधाराधना सैव तत्रोत्पादनकारणं न च कालस्तेन कारणेन स हेय इति भावार्थः ।।१४३॥ उत्थानिका-आगे यह निश्चय करते हैं कि जैसे पूर्व में कहे प्रमाण एक वर्तमान समय में काल द्रव्य का उत्पाद व्यय ध्रौव्य सिद्ध किया गया उसी प्रकार सर्व समयों में होता है अन्वय सहित विशेषार्थ—(एगम्हि समये) एक समय में (समयस्स) कालद्रव्य का (संभवठिविणाससपिणा अट्ठा) उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाव (संति) है (एस हि) निश्चय करके ऐसा ही (कालाणुसब्भावो) कालाणु द्रव्य का स्वभाव (सघकालं) सहाकाल रहता है। जैसे पहले अंगुली द्रव्य आदि के दृष्टांत से एक समय में ही उत्पाद और व्यय का आधार भूत होने से एक विवक्षित वर्तमान समय में ही काल द्रव्य के उत्पाद व्यय प्रोन्यपना स्थापित किया गया तैसा ही सर्व समयों में जानना योग्य है। यहां यह तात्पर्य निकालना चाहिये कि यद्यपि भूतकाल के अनन्त समयों में दुर्लभ और सब तरह से ग्रहण करने योग्य सिद्धगति का कालसन्धिरूप से बाहरी सहकारी कारण फाल है तथापि निश्चय नय से अपने ही शुद्ध आत्मा के तत्व का सम्यक् श्रद्धान, शान और चारित्र तया सर्व पर द्रव्य को इच्छा को निरोधमयी लक्षणरूप तपश्चरण इस तरह यह जो निश्चय चार प्रकार आराधना है यही उपादान कारण है, काल उपादान कारण नहीं है, इससे कालद्रव्य त्यागने योग्य है यह भावार्थ है ॥१४३॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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