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________________ ३१० । [ पवयणसारो अब कर्म से उत्पन्न किया जाने वाला सुख-दुःख कर्मफल है। यहां, द्रथ्य कर्मरूप उपाधि की निकटता के असद्भाव के कारण जो कर्म होता है, उसका फल अनाकुलत्वलक्षण प्रकृति (स्वभाव) भूत-सुख है, और द्रव्यकर्म रूप उपाधि की निकटता के सद्भाव कारण जो कर्म होता है, उसका फल विकृति - (विकार) भूत दुःख है, क्योंकि वहां सुख लक्षण का अभाव है । इस प्रकार ज्ञान, कर्म और कर्मफल के स्वरूप निश्चित हुये ॥ १२४॥ तात्पर्यवृत्ति अथ ज्ञानकर्मकर्मफलरूपेण त्रिधा चेतनां विशेषेण विचारयति गाणं अट्ठवियप्पं ज्ञानं मत्यादिभेदेनाष्टविकल्पं भवति । अथवा पाठान्तरं गाणं अट्ठवियप्पो ज्ञानमर्थत्रिकल्पः तथाह्यर्थः परमात्मादिपदार्थः अनन्तज्ञानसुखादिरूपोऽहमिति, रागाद्यास्रवास्तु मत्तो भिन्ना इति स्वपराकारावभासेनादर्श इवार्थपरिच्छित्तिसमर्थो विकल्पः विकरूपलक्षणमुच्यते । स एव ज्ञानं ज्ञानचेतनेति । कम्मं जीवेण जं समारद्धं कर्म जीवेन यत्समारब्धं बुद्धिपूर्वकमनोदचनकायव्यापाररूपेण जीवेन यत्सम्यक्कर्त मारब्धं तत्कर्म भव्यते । सैव कर्मचंतनेति तमणेगविहं भणियं तच्च कर्म शुभाशुभशुद्धोपयोगभेदेनानेकविधं त्रिविधं भणितमिदानीं फलचेतना कथ्यते - फलंति सोक्खं च दुःखं वा फलमिति सुखं दुःखं वा विषयानुरागरूपं यदशुभोगयोगलक्षणं कर्म तस्य फलमाकुलत्वोत्पादकं नारकादिदुःखं यच्च धर्मानुरागरूपं शुभोपयोगलक्षणं कर्म तस्य फलं चक्रवर्त्यादिपञ्चेन्द्रियभोगानुभवरूपं तच्चाशुद्धनिश्चयेन सुखमप्याकुलोत्पादकत्वात् शुद्धनिश्चयेन दुःखमेव । यच्च रागादिविकल्परहित शुद्धोपयोगपरिणतिरूपं कर्म तस्य फलमनाकुलत्वोत्पादकं परमानन्दकरूपसुखामृतमिति । एवं ज्ञानकर्मकर्मफलचेतनास्वरूपं ज्ञातव्यम् ॥१२४।। उत्थानिका— आगे चेतना के तीन प्रकार ज्ञानचेतना, कर्मचेतना तथा कर्मफलचेतना के स्वरूप का विशेष विचार करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जाणं अट्ठवियत्वं ) ज्ञान मति आदि के भेद से आठ प्रकार का है । अथवा (अट्ठवियप्पो ) पदार्थों के जानने में समर्थ जो विकल्प है ( जाणं ) वह ज्ञान या ज्ञश्न चेतना है । ( जीवेण जं समारद्धं कम्म ) जीव के द्वारा जो प्रारम्भ किया हुआ कर्म है (तमणेगविहं भणियं ) वह अनेक प्रकार का कहा गया है इस कर्म की चेतना सो कर्म चेतना है ( वा सोवखं व दुक्खं फलत्ति ) तथा सुख या दुःख रूप फल में चेतना सो कर्मफल चेतना है | ज्ञान को अर्थ का विकल्प कहते हैं- जिसका प्रयोजन यह है कि ज्ञान अपने और परके आकार को झलकाने वाले दर्पण के समान स्व-पर पदार्थों को जानने में समर्थ है। वह ज्ञान इस तरह जानता है कि अनन्तज्ञान सुखादि रूप में परमात्मा पदार्थ हूँ तथा रागादि आलय को आदि लेकर सवं पुद्गलादि द्रव्य मुझसे भिन्न हैं । इसी
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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