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प्रकाशकीय इस परमाणुयुग में मानव के अस्तित्व की ही नहीं अपितु प्राणिमात्र के अस्तित्व की सुरक्षा की समस्या है। इस समस्या का निदान ‘अहिंसा अमोघ अस्त्र से किया जा सकता है। अहिंसा जैनधर्म संस्कृति की मूल आत्मा है । यही जिनवाणी का सार भी है।
तीर्थंकरों के मुख से निकली वाणी को गणधरों ने ग्रहण किया और आचार्यों ने निबद्ध किया जो आज हमें जिनवाणी के रूप में प्राप्त है। इस जिनवाणी का प्रचार-प्रसार इस युग के लिए अत्यन्त उपयोगी है। यही कारण है कि हमारे आराध्य-पूज्य आचार्य, उपाध्याय एवं साधुगण जिनवाणी के स्वाध्याय और प्रचार-प्रसार में लगे हुए हैं।
उन्हीं पूज्य आचार्यों में से एक हैं सन्मार्गदिवाकर चारित्रचूड़ामणि परमपूज्य आचार्यवर्य श्री विमलसागर महाराज | जिनकी अमतमयी वाणी प्राणिमात्र के लिए कल्याणकारी है। आचार्यवयं की हमेशा भावना रहती है कि आज के समय में प्राचीन आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रन्थों का प्रकाशन हो और मन्दिरों में स्वाध्याय हेतु रखे जांए जिसे प्रत्येक थावक पढ़कर मोहरूपी अन्धकार को नष्टकर ज्ञानज्योति जला सके।
जैनधर्म की प्रभावना जिनवाणी के प्रचार-प्रसार सम्पूर्ण विश्व में हो, आर्ष परम्परा की रक्षा हो एवं अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर का शासन निरन्तर अवाधगति से चलता रहे । उक्त भावनाओं को ध्यान में रखकर परमपूज्य ज्ञानदिवाकर, उपाध्यायरल श्री भरतसागर महाराज एवं आर्यिकारत्न स्याद्वादमती माता जी की प्रेरणा व निर्देशन में परमपूज्य आचार्य श्री विमलसागर महाराज के ७४वीं जन्म जयन्तो के अवसर पर ७५वीं जन्म जयन्ती के रूप में मनाने का संकल्प समाज के सम्मुख भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत्-परिषद् ने लिया। इस अवसर पर ५५ ग्रन्थों के प्रकाशन की योजना के साथ ही भारत के विभिन्न नगरों में ७५ धार्मिक शिक्षणशिविरों का आयोजन किया जा रहा है और ७५ पाठशालाओं को स्थापना भी की जा रही है। इस ज्ञान यज्ञ में पूर्ण सहयोग करने वाले ७५ विद्वानों का सम्मान एवं ७५ युवा विद्वानों को प्रवचन हेतु तैयार करना तथा ७७७५ युवावर्ग से सप्तव्यसन का त्याग कराना आदि योजनाएं इस हीरकजयन्ती वर्ष में पूर्ण को जा रही हैं।
सम्प्रति आचार्यवयं पू० विमलसागर जी महाराज के प्रति देश एवं समाज अत्यन्त कृतज्ञता ज्ञापन करता हुआ उनके चरणों में शत-शत नमोऽस्तु करके दीर्घायु की कामना करता है । ग्रन्थों के प्रकाशन में जिनका अनुल्य निदशन एवं मार्गदर्शन मिला है, वे पूज्य उपाध्याय श्री भरतसागर महाराज एवं अयिका स्याद्वादमति माताजी हैं । उनके लिए मेरा क्रमश: नमोऽस्तु एवं बन्दामि अर्पण है।
उन विद्वानों का भी आभारी हूँ जिन्होंने ग्रन्थों के प्रकाशन में अनुवादक/सम्पादक एवं संशोधक के रूप में सहयोग दिया है । ग्रन्थों के प्रकाशन में जिन दातारों ने अर्थ का सह्योग करके अपनी चंचला लक्ष्मी का सदुपयोग करके पुण्यार्जन किया, उनको धन्यवाद करता है । ये ग्रन्थ विभिन्न प्रेसों में प्रकाशित हुए एतदर्य उन प्रेस संचालकों को जिन्होंने बड़ी तत्परता से प्रकाशन का कार्य किया वे धन्यवादाह हैं । अन्त में उन सभी सहयोगियों का भी आभारी हूँ, जिन्होंने प्रत्यक्ष-परोक्ष में सहयोग प्रदान किया है।
ब्र०५०धर्मचन्द्र शास्त्री
अध्यक्ष भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद्