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[ पवयणसारो
तसर्वं शुद्धात्मप्रदेशभरितावस्थेन शुद्धोपादानभूतेन स्वकीयस्वभावेन निष्पन्नत्वात् । यच्च स्वभावसिद्ध ं न भवति तद्रव्यमपि न भवति । चणुकादिमुद्गलस्कन्धपर्यायवत् मनुष्यादिजीव पर्यायवच्च । सदिति यथा स्वभावतः सिद्ध ं तद्द्द्रव्यं तथा सदिति सत्तालक्षणमपि स्वभावत एव भवति न च भिन्नसत्तासमवायात् । अथवा यथा द्रव्यं स्वभावतः सिद्ध तथा तस्य योसौ सत्तागुणः सोपि स्वभावसिद्ध एव । कस्मादिति चेत् । सत्ताद्रव्पयोः संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेपि दण्डदण्डिवद्भिन्तप्रदेश भावात् 1 इदं के कथितवन्तः । जिणा तच्चदो समखादा जिनाः कर्तारः तत्त्वतः सम्यगाख्यातवन्तः कथितवन्त. सिद्ध तह आगमबो सन्तानापेक्षया द्रव्य । थिकन येनानादिनिधनागमादपि तथा सिद्ध च्छवि जो, सो हि परसमओ नेच्छति न मन्यते य इदं वस्तुस्वरूपं स हि स्फुटं परसमयो मिध्यादृष्टिर्भवति । एवं था परमात्मद्रव्यं स्वभावतः सिद्धमव बोद्धव्यं तथा सर्वद्रव्याणीति । अत्र द्रव्यं केनापि पुरुषंग न क्रियते । सत्तागुणोषि द्रव्यादिधन्नो नास्तीत्यभिप्राय: ॥६५॥
उत्थानिका- आगे यह कहते हैं कि जैसे द्रव्य स्वभाव से सिद्ध है वैसे ही सत् भी स्वभाव से सिद्ध है
गाथार्थ - ( दव्वं ) द्रव्यं ( सहायसिद्धं ) स्वभाव से सिद्ध है ( सविति) सत् भी स्वभाव सिद्ध है ऐसा ( जिणा) जिनेन्द्रों ने ( तच्चवा) तत्व से ( समक्खादा ) कहा है ( तथ ) तैसे हो ( आगमदो ) आगम से (सिद्ध) सिद्ध है (जो ) जो कोई (मछदि) नहीं मानता है ( सो हि परसमओ) वही प्रगट रूप से परसमय रूप है ।
टीकार्थ - यहाँ परमात्म- द्रव्य पर घटाकर कहते हैं कि परमात्मारूपी द्रव्य स्वभाव से सिद्ध है क्योंकि परमात्मा अनादि अनन्त, बिना अन्य कारणों की अपेक्षा के अपने स्वतः सिद्ध केवलज्ञानादि गुणों के आधारभूत हैं, सदा आनन्दमयी सुखामृत रूपी परम समरसी भाव में परिणमन करते हुए सर्व शुद्ध आत्मप्रदेशों से भरपूर हैं तथा शुद्ध उपादान रूप से अपने ही स्वभाव से उत्पन्न हैं। जो सत् स्वरूप स्वभाव से सिद्ध नहीं होता है वह द्रव्य भी नहीं होता है। जैसे द्विणुक आदि मुद्गलस्कंध की पर्याय व मनुष्यादि जीवपर्याय | जैसे द्रव्य स्वभाव से सिद्ध है वैसे उसकी सत्ता भी स्वभाव से सिद्ध है, सत्ता किसी भिन्न सत्ता के समवाय से नहीं हुई है । क्योंकि सत्ता और द्रव्य में संज्ञा, लक्षण, प्रयोजनादि से भेद होने पर भी जैसे दण्ड और दण्डी पुरुष के प्रदेशों का भेद है, ऐसो प्रदेशों की भिन्नता सत्ता और द्रव्यों में नहीं है। इस बात को तीर्थंकरों ने भले प्रकार वर्णन किया है। तथा यही बात सन्तान की अपेक्षा द्रव्यार्थिकनय से अनादि अनंत आगम से भी सिद्ध है । जो ऐसा वस्तु का स्वरूप नहीं स्वीकार करता है यह मिथ्यावृष्टि है । इस तरह जैसा परमात्म द्रव्य स्वभाव से सिद्ध है वैसे ही सर्व द्रव्यों को स्वभाव से सिद्ध जानना चाहिये द्रव्य को किसी पुरुष ने रचा नहीं है और न द्रव्य का सत्ता गुण ही द्रव्य से भिन्न है, इस गाथा का यह अभिप्राय है ॥६८॥